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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :३
करो। यदि किसी के पास ऋद्धिमान्--दिव्य ऋद्धि से युक्त, विपुलप्रभावशाली, आकाशमार्ग से जाने में समर्थ हाथी हों तो वे उसे आकाश-मार्ग द्वारा ले जाकर यथास्थान पहुंचा सकते हैं, कष्ट से उबार सकते हैं, यदि किसी के पास वैसे ही ऋद्धिशाली, प्रभावशाली आकाश-मार्ग द्वारा ले जाकर यथास्थान पहुंचा सकते हैं, यदि किसी के पास वैसे ही ऋद्धिसम्पन्न, प्रभावापन्न, आकाश-मार्ग से जाने में सशक्त पक्षी हों तो वे उसे आकाश-मार्ग द्वारा ले जाकर यथास्थान पहुँचा सकते हैं. यदि किसी के यहाँ दिव्य ऋद्धिमय, प्रभावमय. आकाशमार्ग से जाने में समर्थ यक्ष हों तो वे उसे आकाश-मार्ग द्वारा पहुँचा सकते हैं, संकट से उबार सकते हैं। .
राजन् ! पूर्वाचीर्ण कर्म बड़े दुष्कर तथा दुरभिसंभव होते हैं। उनका फल भोगना ही पड़ता है मैं तुमको आकाश-मार्ग द्वारा मिथिला ले जाकर इस विपत्ति से नहीं बचा
सकता।"
विदेहराज ने जब यह सुना तो वह हक्का-बक्का रह गया, किंकर्तव्यविमूढ हो गया। तब सेनक पण्डित ने सोचा, अब विदेहराज, हम सबके लिए महौषध के अतिरिक्त अन्य कोई अवलम्बन नहीं है। महौषध की तीव्र उपालंभपूर्ण वाणी सुनकर राजा बड़ा भयाक्रान्त हो गया है। अब वह कुछ भी बोल नहीं सकता, महौषध पण्डित को वह अब कुछ भी कहने का साहस नहीं कर सकता। मैं ही पण्डित से अनुरोध करूं । यह सोचकर उसने कहा-"अगाध समुद्र में डूब रहे मनुष्य को जब सागर का तट दृष्टिगत नहीं हो तो, तब उसे जहाँ कहीं भी आश्रय-स्थल दीखता है, वह वहीं परितोष मानता है। उसी प्रकार महौषध ! अब तुम ही विदेहराज के तथा हम सबके आश्रय-स्थल हो। राजा के मन्त्रणाकारों में ही सर्वोत्तम हो। हमको इस संकट के पार लगाओ""
१. अतीतं मानुस कम्मं दुक्करं दुरभिसंभवं । न तं सक्कोमि मोचेतुं त्वम्पि जानस्सु खत्तिय !! १५६।। सन्ति वेहायसा नागा इद्धिमन्तो यसस्सिनो। ते पि आदाय गच्छेय्यं यस्स होन्ति तथाविधा ॥१५७।। सन्ति वेहायसा अस्सा इद्धिमन्तो यसस्सिनो। ते पि आदाय गच्छेय्यं यस्स होन्ति तथाविधा ॥१५८।। सन्ति धेहायसा पक्खी इद्धिमन्तो यसस्सिनो। ते पि आदाय गच्छेय्युं यस्स होन्ति तथाविधा ॥१५६।। सन्ति वेहायसा यक्खा इद्धिमन्तो यसस्सिनो। ते पि आदाय गच्छेय्युं यस्स होन्ति तथाविधा ॥१६०॥ अतीतं मानुसं कम्मं दुक्करं दुरभिसंभवं । न तं सक्कोमि मोचेतुं अन्तलिक्खेन खत्तिव ॥१६१।। २. अतीरदस्सी पुरिसो महन्ते उदकण्णवे । यत्थ सो लभते गाधं तत्थ सो विदते सुखं ।। १६२ ।। एवं अम्हज रो च त्वं पतिठ्ठा महोसध । त्वं नोसि मन्तिनं सेठ्ठो अम्हे दुक्खा पमोचय ॥ १६३ ॥
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