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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३३५
वह फिर कभी ऐसा न करे, इसलिए बोधिसत्त्व ने कटुतापूर्वक डांटते हुए कहा"राजन् ! तुम अत्यन्त मूर्ख हो, तुमने मुझे कितनी ऊँची उपमा दी कि मैं तो हल की नोक को पकड़ने वाला किसान हूँ--उजड हूँ। ऊँचे स्तर की तुम्हारी बातों को मैं कहां से समझं। इतना ही नहीं, तुमने यह भी कहा कि इसे गला पकड़ कर देश से निर्वासित कर दो-निकाल दो। यह मेरे स्त्री-रत्न की प्राप्ति में, ऐसे उत्तम लाभ में अन्तरायजनक-~विघ्नोत्पादक वचन बोल रहा है।
"राजन् ! तुमने ठीक ही कहा, मैं तो एक किसान का छोकरा हूँ। तुम्हारे सेनक आदि पण्डित जो बातें समझते हैं, उन्हें समझने की क्षमता मुझमें कहाँ ! मैं तो मामूली घर-गृहस्थी का कार्य जानता हूँ। ऐसी ऊँची बातें तो सेनक आदि ही समझते हैं। वे प्रज्ञाशील हैं। आज तुम अठारह अक्षोहिणी सेना से घिर गये हो। उन्हें तुम्हारा परित्राण करना चाहिए। मुझे तो तुमने गला पकड़कर निकालने का आदेश दे दिया था, अब मुझ ही से क्यों पूछ रहे हो ?"
विदेहराज ने यह सुनकर विचार किया, वास्तव में मेरी वह भूल थी, जिसका परिणाम मैं आज यह देख रहा हूँ। महौषध पण्डित ठीक कहता है। उसने यह समझ लिया था कि इससे संकट उत्पन्न होगा। मेरी गलती ही के कारण आज वह मुझे सबके समक्ष इतना लताड़ रहा है, पर, मुझे विश्वास है, वह इतने समय अकर्मण्य नहीं रहा होगा, अवश्य ही उसने मेरी रक्षा का उपाय किया होगा। राजा ने अनुरोध की भाषा में पण्डित से कहा-"महौषध ! प्राज्ञ जब अतीत की-बीते हुए समय की बात पकड़कर वाक-बाण से नहीं बींधते, इतने मर्मवेधी वचन नहीं 4 हते। जिस तरह बँधे हुए घोड़े को कोई चाबुकों से पीटे, वैसे ही मुझे तुम वचन के कोड़ों से क्यों पीटते हो ? यदि मेरे मोक्ष का- इस संकट से छूटने का मार्ग देखते हो, जानते हो, मेरा क्षेम-हित जिससे सधे, यदि तुम ऐसा उपाय जानते हो तो मुझे बतलाओ । मेरी पुरानी गलती को लेकर अब वाग्बाण से मत बींधो।"
बोधिसत्त्व ने विचार किया, यह राजा बड़ा अज्ञानी है, मूढ है। इसे विज्ञ, विशिष्ट व्यक्ति की पहचान नहीं है, इसकी कुछ और भर्त्सना करूं । फिर इसे आश्वस्त करूंगा। उसने कहा-"राजन् ! मनुष्य के पूर्वाचीर्ण कर्म बड़े दुष्कर-कठोर तथा दूरभिसंभव-दुरभिसंलावनायुक्त होते हैं, बडी दुःखद संभावनाएँ लिये रहते हैं। उनका फल भोगना ही पड़ता है। मैं उससे तुम्हें नहीं छुड़ा सकता। अब तुम जानो, जैसा समझ में आये, जचे; वैसा
१. बालो तुवं एळ मूगोसि राज !
यो उत्मत्थानि मयि लपित्थो। किमेवाहं मंगलकोटिबद्धो अत्थानि जानिस्सं यथापि अज्ञे ॥१५८॥ इमं गले गहेत्वान नासेथ विजिता मम ।
यो मे रतनलाभस्स अन्तरायाय भासति ॥१५३॥ २. महोषध अतीतेन नानुविज्झन्ति पण्डिता। कि म अस्सं व सम्बद्धं पतोदेनेव विज्झसि ॥१५४॥ स चेव पस्सासि मोक्खं खेमं वा पन पस्ससि । तेनेव मं अनुसास किं अपीतेन विज्झसि ॥१५॥
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