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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ उसी प्रकार मेरा हृदय भीतर-ही भीतर जल रहा है। जैसे कुम्हारों की अग्नि-मृत्तिका के भांड, पात्र पकाने की न्याही भीतर से जलती है, बाहर से नहीं, उसी प्रकार मेरा हृदय भीतर ही भीतर जल रहा है, बाहर से नहीं।"१ बोधिसत्त्व ने जब विदेहराज की क्रन्दन सना तो सोचा. यह बेवकफ और समय मेरी बात पर गौर नहीं करता। अब इसे निगृहीत करना चाहिए लताड़ना चाहिए। उसने कहा-"क्षत्रिय ! तुम प्रमादी हो, समुचित मन्त्रणा से अतीत हो-उचित मन्त्रणा पर गौर नहीं करते, उस पर नहीं चलते । अनुचित मन्त्रणा के अनुसार चलते हो। इस समय तुम्हें वे ही पण्डित बचायेंगे, जिनकी मन्त्रणा को तुमने मान दिया। "राजन् ! तुमने अपने अर्थ-राज्यतन्त्र, काम-सुख-भोग के शुभचिन्तक, सत् परामर्शक का कथन नहीं माना । अपने ही मौज-मजे में मस्ती का अनुभव करते रहने के कारण अब तुम जाल में फंसे हुए मृग के सदृश हो। - "मांस-लोलुपता के कारण जैसे मत्स्य मांस-लिप्त काँटे को निगल जाता है, वह नहीं समझता कि यह उसकी मृत्यु का पैगाम है, उसी प्रकार राजन् ! तुमने चूळनी ब्रह्मदत्त की कन्या को पाने की कामना में लुब्ध होने के कारण मृत्यु को नहीं देखा । अब मरने की तैयारी करो। मैंने तुमसे कहा था, यदि उत्तर पाञ्चाल जाओगे तो शीघ्र मृत्यु को प्राप्त करोगे, नगर-पथ में भटके मग की ज्यों संकट में पड़ जाओगे । तुमने मेरी बात नहीं मानी। "राजन् ! अनार्य-अनुत्तम, अयोग्य पुरुष उत्संगगत-गोदी में बैठे साँप की ज्यों डंस लेता है-हा हानि पहुँचाता है। धीर पुरुष का यह कर्तव्य है कि वैसे, मनुष्य से मित्रता न जोड़े; क्योंकि वैसे कापुरुष-नीच मनुष्य, दुष्ट मनुष्य की संगति का फल बड़ा कष्टकारक होता है। जिसे जाने कि यह शीलवान् है---उच्च, पवित्र आचार-युक्त है, बहुश्रुत है--विशिष्ट ज्ञानयुक्त है, स्थिरचेता व्यक्ति को चाहिए कि वह उसी से मित्रता साधे ; क्योंकि उत्तम पुरुष का सान्निध्य परिणाम-सरस- उत्तम फलयुक्त होता है।" १. उब्बेधते मे हृदयं मुखञ्च परिसुस्सति । निब्बुर्ति नाधिगच्छामि अग्गिदड्ढो व आतपे ॥१४३।। कम्मारानं यथा उक्का अन्तो झायति नो बहि। एवम्पि हृदयं मय्हं अन्तो झायति नो बहि ।।१४४॥ २. पमत्तो मन्तनातीतो भिन्नमन्तोसि खत्तिय। इदानि खो तं तायन्तु पण्डिता मन्तिनो जना ॥१४५।। अकत्वा मच्चस्य वचनं अत्थकामहितेसिनो। अत्तपीतिरतो राज ! मिगो करेव आहितो ॥१४६।। यथापि मच्छो बलिस वंक मंसेन छादितं । आमगिद्धो न जानाति मच्छो मरणमत्तनो ॥१४७।। एवमेव तुवं राज ! चूळनीयस्स धीतरं। कामगिद्धो न जानासि मच्छो न मरणमत्तनो॥१४८।। स चे गच्छामि पञ्चालं खिप्पमत्तं जहेस्ससि । मिगं पथानुपन्नं व महन्तं भयमेस्ससि ॥१४९।। अनारियरूपो पुरिसो जनिन्द ! अहीव अच्छंगगतो डसेय्य । न तेन मेति कयिराथ धीरो, दुक्खो हवे का पुरिसेन संगमो ॥१५०॥ यन्त्वेव जज्ञा पुरिसं सीलवायं बहुस्सुतो। तेनेव मेत्ति कयिराथ धीरो, सुखो हवे सप्पुरिसेन संगमो ॥१५१।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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