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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३३१
विदेहराज के दूत के मुंह से चूळनी ब्रह्मदत्त यह सुनकर बड़ा हर्षित हुआ। उसने सोचा-मेरे कब्जे में आ गया है, अब वह कहीं नहीं जा पायेगा। अब मैं उसका और गाथापति-पुत्र महौषध का शिरच्छेद करूंगा। फिर हम सब विजय-पान करेंगे-विजयोपलक्ष्य में सुरापानोत्सव आयोजित करेंगे।
पाञ्चालराज के मन में क्रोध के शोले धधक रहे थे, किन्तु, उसने कृत्रिम मुस्कान के साथ दूत का स्वागत किया और कहा-"तुम मेरी ओर से अपने राजा को निवेदित करो- विदेहराज ! मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। तुम्हारा आगमन मंगलमय है। तुम नक्षत्र, मुहुर्त पूछ लो। तदनुसार मैं स्वर्णाभरणों से आच्छन्न दासीगण परिवृत अपनी कन्या प्रदान करूगा।"
विदेहराज ने नक्षत्र, मुहूर्त आदि पूछवाये। तत्सम्बन्धी सूचना देने हेतु पुन: अपना दूत पाञ्चालराज के पास भेजा तथा कहलवाया कि आज ही उत्तम मुहूर्त है। सर्वांगसुन्दरी, स्वर्णाभरणालंकृत, दासीगणपरिवृत अपनी कन्या मुझे भार्यारूप में प्रदान करें।
राजा चूळनी ब्रह्मदत्त ने वापस दूत द्वारा उत्तर दिलवाया-"बहुत अच्छा, मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है। मैं अपनी सर्वांगसौन्दर्यवती, स्वर्णालंकार भूषित, दासीवृन्द परिवृत अपनी कन्या तुम्हें पत्नी के रूप में दूंगा।"3 ।
___ कन्या देने का झूठा बहाना बनाते हुए राजा ब्रह्मदत्त ने अपने अधीनस्थ सौ राजाओं को गुप्त रूप में निर्देश दिया-अठारह अक्षौहिणी सेना को साथ लो, युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाओ, बाहर निकलो। आज हम विदेहराज और महौषध-अपने इन दोनों शत्रुओं का शिरच्छेद करेंगे। वैसाकर हम कल अपनी जीत का जश्न मनायेंगे, विजयोपलक्ष्य में सूरा-पान करेंगे।
___ अपनी अठारह अक्षोहिणी सेना तथा एक सौ राजाओं को साथ लिये चूळनी ब्रह्मदत्त युद्धार्थ निकल पड़ा। उसने अपनी माता तलतालदेवी, पटरानी नंदादेवी, राजकुमार पाञ्चालचण्ड तथा राजकूमारी पाञ्चाल चण्डी को राजप्रासाद में ही रखा।
महौषध ने विदेहराज के लिए सुन्दर व्यवस्था कर रखी थी। उसने विदेहराज तथा उसके साथ आई सेना का बड़ा सत्कार किया। सैनिकों में कतिपय मदिरा-पान में जुट पड़े, कुछ मत्स्य-मांस आदि खाने में लग गये, दूर से चलकर आने के कारण परिश्रान्त हो जाने से कुछ सो गये । विदेहराज सेनक आदि पण्डितों एवं मन्त्रियों के साथ सुसज्जित, सुशोभित विशाल भवन के ऊपर बैठा था।
१. स्वागतं ते वेदेह ! अथो ते अदुरागतं । नक्खत्तोव परिपुच्छ अहं कलं ददामिते ।
सुवण्णेन पटिच्छन्नं दासीगण पुरक खतं ॥१३६॥ २. ततो च राजा वेदेहो नक्खत्तं परिपुच्छथ । नक्खत्तं परिपुच्छित्वा ब्रह्मदत्तस्स पाहिणि ।।१३७।। ददाहि दानि मे भरियं नारि सब्बंगसोमिनि । सवण्णेन पटिच्छन्नं दासीगणपुरक्खतं ॥१३८।। ३. ददामि दानि ते भरियं नारि सब्बंगसोभिनि । सुवण्णेन परिच्छन्नं दासीगणपुरक्खतं ॥१३६।।
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