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________________ ३३० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :३ किन्हीं में बड़ी-बड़ी शय्याएँ थीं, जिन पर सफेद छत्र तने थे। किन्हीं में सिंहासनयुक्त बड़ीबड़ी शय्याएँ थीं । किन्हीं में कमनीय नारी-प्रतिमाएं बनी थीं, जिनका हाथ से स्पर्श किये बिना यह पता ही न चले कि वे सप्राण नहीं हैं। सुरंग के दोनों ओर की भित्तियों पर कुशल चित्रकारों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र अंकित किये, जिनमें सुमेरु, हिमाद्रि, महासागर, चातुर्महाद्वीप, चन्द्र, सूर्य, चातुर्महाराजिक देव, स्वर्ग, शक्र-लीला आदि बड़े सुन्दर रूप में प्रदर्शित थे । फर्श पर चाँदी-सी उजली बालुका विकीर्ण की गई थी, उस पर मनोज्ञ कमल अंकित थे। दोनों ओर विविध प्रकार की दुकानें परिदर्शित थीं । यत्र-तत्र सरभिमय मालाएँ फूलो के हार प्रलम्बित थे। देवताओं की सुधर्मा संज्ञक सभा के सदृश उस सुरंग को सुसज्जित किया गया। नव निर्माणाधीन नगर में जल-परिखा, अठारह हाथ ऊँचा प्राचीर, गोपुर-विशाल द्वार, बुर्जे, राजप्रासाद, भवन, गजशाला, अश्वशाला, सरोवर आदि सभी सुन्दर रूप में निर्मापित हुए। विशाल सुरंग, योजक सुरंग आदि सभी निर्मेय स्थान चार मास में बनकर सम्पन्न हो गये। विदेहराज : उत्तर पांचाल में महौषध ने अब विदेहराज को बुलाने हेतु अपना दूत - संदेशवाहक मिथिला भेजा। दूत द्वारा सन्देश भिजवाया- "राजन् ! अब आप आइए। आपके निवास हेतु भवन का- आवास-नगर का निर्माण-कार्य सम्पन्न हो गया है।" महौषध का आदेश पाकर दूत शीघ्रतापूर्वक चलता हुआ यथासमय मिथिला पहुंचा। राजा से भेंट की और उसे महौषध का सन्देश बताया। राजा दूत द्वारा कहा गया सन्देश सुनकर बहुन प्रसन्न हुआ। उसने अपनी चतुरंगिनी सेना अनेक वाहन एवं अनुचर वन्द के साथ स्फीत--सन्दर उत्तर पांचाल नगर की दिशा में प्रयाण किया। वह चलता-चलता गंगा के किनारे पर पहंचा। महौषव अपने राजा का स्वागत करने सामने आया। वह राजा को तथा तत्सहवर्ती सभी लोगों को नव-निर्मित नगर में ले गया। राजा वहाँ अत्युत्तम महल में रुका। नाना प्रकार का स्वादिष्ट भोजन किया। कुछ देर विश्राम किया। सायंकाल राजा ब्रह्मदत्त को अपने आने की सूचना देने दूत भेजा। दूत के मह से कहलवाया-'महाराज ! मैं आपके चरणों को वन्दन करने यहाँ आया हूँ आप सर्वांगशोभिनी–सर्वांगसुन्दरी, स्वर्णाभरणों से आच्छन्न--ढकी, दासीवृन्द से परिवृत अपनी कन्या मुझे पत्नी के रूप में प्रदान करें।"3 १. निवेसनानि मापेत्वा वेदेहस्स यसस्सिनो। अथस्स पहिणी दूतं एहि दानि महाराज मपितं ते निवेसनं ॥१३२।। २. ततो व राजा पायासि सेनाय चतुरंगिया। __ अनन्तवाहनं दटुं फीतं कम्पिलियं पुरं ॥१३३॥ ३. ततो व खो सो गन्त्वान ब्रह्मदतस्य पाहिणि । आगतोस्मि महाराज ! तव पादानि वन्दितुं ॥१३४।। ददाहि दानि मे भरियं नारिं सब्बंगसोभिनि । सुवण्णेन परिच्छन्नं दासीगणपुरक्खतं ।१३५॥ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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