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तत्त्व : आचार : कथानुयोग [
कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३२९
राजा ने कहा- "तुम्हारे हाथी गंगा में निश्चिन्त जल-क्रीडा करें, हमें कोई बाधा नहीं है। राजा ने सारे नगर में यह घोषणा करवा दी कि महौषध पण्डित जिस स्थान पर नगर-निर्माण कर रहा है, उधर कोई न जाए। यदि कोई जायेगा तो उसे सहस्र मुद्राओं से दण्डित किया जायेगा।"
महौषध ने राजा को प्रणाम किया। उसने अपने आदमियों को साथ लिया, नगर से निकला, नगर से बाहर जो स्थान निर्णीत किया था, वहाँ विदेहराज के लिए आवास-नगर की रचना का कार्य शुरू करवाया। गंगा के पार एक गाँव आबाद किया, जिसका नाम गगाली रखा। अपने हाथियों, घोड़ों, रथों, गायों और बैलों को वहाँ रखा । नगर-निर्माण के सम्बन्ध में सुव्यवस्थित चिन्तन कर समस्त कार्य समुचित रूप में विभक्त कर दिया गया, जिन-जिन को जो कार्य करने थे, वे उन्हें सौंप दिये। फिर सुरंग का निर्माण कार्य गतिशील हआ। बड़ी सुरंग का दरवाजा गंगा के तट पर रखा गया। छः हजार शसक्त, स्फूर्त मनुष्यों को सरंग के खनन में लगाया। वे सुरंग खोदते जाते, खुदाई में निकलने वाली मिट्टी को गंगा में गिरवाते जाते । जितनी मिट्टी डाली जाती, उसे प्रशिक्षित हाथी पैरों से रौंदकर दबाते जाते । ऐसा होने से नदी का जल मटमैला-मिट्टी के रंग का हो गया। जैसा कि पहले से ही अशं कि त था, नागरिक कहने लगे- “महौषध तथा उसके आदमियों के यहाँ आ जाने के बाद बड़ी कठिनाई है, पीने का स्वच्छ जल ही नहीं मिलता । सारा जल बड़ा मैला हो गया। ऐसा क्यों है ?"
महौषध पण्डित द्वारा गुप्त रूप में उत्तर पाञ्चाल नगर में नियोजित पुरुष नागरिकों को समझाते, महौषध के हाथी जल-क्रीड़ाप्रिय हैं। उनके क्रीडा करने में नदी में कीचड़ होता है, जल मटमैला हो जाता है । महौषध हाथियों के जल-क्रीड़ा-स्वातन्त्र्य की राजा से अनुज्ञा प्राप्त कर चुका है।
निर्माण चलता गया। बोधिसत्त्वों द्वारा उद्दिष्ट कार्य कभी अपरिपूर्ण नहीं रहते। जो सुरंग चलने हेतु बन रही थी, वह आवास-नगर, राजप्रासाद तथा बड़ी सुरंग की योजिका थी। सात सौ मनुष्य खुदाई में लगे । खुदाई में निकलने वाली मिट्टी को वे वहाँ डालते जाते, जहाँ विदेह राज के लिए आवास-नगर का निर्माण हो रहा था। जितनी मिट्टी वहाँ डाली जाती, उसका उपयोग हो जाता। उस में पानी मिला देते। उसे परकोटा बनाने के कार्य में लेते जाते या वैसे ही वि सी अन्य कार्य में उसका उपयोग करते।
बड़ी सुरंग के प्रवेश का द्वार विदेहराज के आवास-नगर में था। उसमें अठारह हाथ परिमाणमय उच्च यन्त्रमय कपाट लगाया गया था। एक शंकु के खींचने मात्र से वह बन्द हो जाता। वैसे ही वह शंकु के खींचने से उद्घाटित हो जाता। बड़ी सुरंग की चिनाई कराये जाने के पश्चात् चूने से उसकी लिपाई कराई गई। ऊपर काठ के तख्तों की छत डलवाई गई। तख्तों के पारस्परिक जोड़ दृष्टिगोचर न हों, इस हेतु ऊपर से मिट्टी का लेप करवा दिया गया। ऊपर कलई करवा दी गई । उसमें अस्सी बड़े द्वार तथा चौंसठ छोटे द्वार थे। सभी यन्त्र-चालित थे। नियन्त्रक शंकु के खींचते ही सब खुल जाते तथा पुनः खींचते ही बन्द हो जाते । सरंग के दोनों ओर सैकड़ों ताक-आले बने थे, जिनमें प्रदीप रखे थे। वे भी यन्त्र-सम्बद्ध थे। उनका भी खुलना, बन्द होना, प्रदीपों का जलना बुझना शंकु के खींचने मात्र से हो जाता था। सुरंग के दोनों ओर एक सौ राजपुत्रों के लिए एक सौ शयनागार-शयन-प्रकोष्ठ बने थे। प्रत्येक में भिन्न-भिन्न रंगों के आस्तरण बिछे थे।
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