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________________ ३२८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :३ कहना मेरे लिए अत्यन्त लज्जाजनक होगा कि राजमाता होते हुए भी मैंने ऐसा किया। शंका मत करो, मैं किसी से नहीं कहूँगी।" राजमाता से एक लाख की रिश्वत ले लेने के बाद महौषध अपने आदमियों को लिये केवट्ट ब्राह्मण के घर पहुँचा। वहाँ भी वैसा ही किया, जैसा राजमाता के यहाँ किया था। केवट्ट राजा से शिकायत करने राजद्वार पर गया। महौषध द्वारा नियुक्त द्वारपालों ने उसे भीतर नहीं जाने दिया। जब उसने ज्यादा रौब गांठना चाहा तो बाँस की पट्टियों से मारमार कर उसकी चमड़ी उड़ा दी। उसने भी और कोई उपाय न देख एक लाख की रिश्वत देकर अपना घर बचाया। इस प्रकार नगर के सारे सम्पन्न लोगों के घरों को तोड़ने का स्वांग रचकर महौषध ने नौ कोटि काषार्पण संगृहीत किये । तत्पश्चात् महौषध राजा ब्रह्मदत्त के पास गया। राजा ने उससे पूछा-"पण्डित ! क्या तुमको अपने राजा के लिए भवन-निर्माण कराने हेतु स्थान प्राप्त हुआ ?" महौषध ने कहा - "राजन् ! आपका आदेश प्राप्त हो जाने के बाद कौन ऐसा है, जो मुझे स्थान न दे। किन्तु, एक बात है, अपना घर देते हुए वे मन-ही-मन बड़े दु:खित होते हैं; अतः यह उचित नहीं लगता कि अपने लिए हम उनकी इष्ट वस्तु उनसे लें। मुझे यह संगत प्रतीत होता है कि नगर के बाहर दो कोस का स्थान-गंगा और नगर के मध्य हम ले लें तथा वहाँ विदेहराज के लिए आवास-भवन का, जिसे आवास-नगर कहा जाए, निर्माण कराएँ।" राजा ब्रह्मदत्त को महौषध का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। उसने सोचा, जैसी हमारी योजना है, विदेहराज और उसके आदमियों को हमें मौत के घाट उतारना है । वह भी सेना साथ लिये होगा, इसलिए युद्ध करना पड़ेगा। नगर के भीतर युद्ध करने में असुविधा होती है । यहाँ अपनी तथा अन्य की सेना का पता चलना कठिन हो जाता है; क्योंकि सब घुल-मिल जाते हैं। नगर से बाहर युद्ध करने में सुविधा रहेगी; अत: यह अच्छा होगा कि वे नगर के बाहर ही रहें। वहीं से उन्हें मार-मार कर नष्ट कर डालेंगे। यह सोचकर राजा ने कहा- "तुमने जिस स्थान का चयन किया है, वहीं अपना निर्माण कार्य करवाओ।" महौषध ने कहा - 'महाराज ! जैसा आपने आदेश दिया है, तदनुसार मैं आवासनगर का निर्माण कराऊँगा, किन्तु, एक कठिनाई मुझे और दृष्टिगोचर होती है। उधर आपके यहाँ के आदमी लकड़ियाँ काटने, पेड़ों के पत्ते बटोरने आते रहते हैं । यदि उनका उधर आवागमन रहेगा तो यह आशकित है, हमारे आदमियों का और उनका परस्पर झगडा जाए । इससे तुम्हें भी अशान्ति होगी और हमें भी।" महौषध का यह कथन अपने कार्य की गोपनीयता बनाये रखने की दृष्टि से था। राजा बोला-"अच्छा, पण्डित ! तुम्हारा यह प्रस्ताव भी मैं स्वीकार करता हूँ। लकड़ियाँ बटोरने वालों तथा पेड़ों के पत्ते बटोरने वालों का वहाँ आना-जाना बन्द रहेगा।" मदौषध ने कहा-.. "राजन् ! एक और निवेदन है, हमारे हाथी जल में रहने में विशेष अभ्यस्त हैं, जल-क्रीडा में अधिक अभिरुचिशील हैं । वे गंगा में जल-क्रीडा करेंगे। उससे पानी मटमैला हो जाए, यह आशंकित है। वैसा होने पर नागरिक हमारे विरुद्ध शिकायत करें कि हमारे यहां आने के पश्चात् उन्हें पीने को स्वच्छ जल नहीं मिलता, आपको यह बर्दाश्त करना होगा।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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