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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३२७ आदमियों ने कहा – “हमें हमारे स्वामी महौषध पण्डित की आज्ञा है, इसे तोड़ दो, गिरा दो; क्योंकि वह अपने राजा के लिए इस स्थान पर नूतन भवन का निर्माण कराना चाहता है ।" राजमाता बोली - "यदि इस कार्य हेतु भवन चाहिए तो तुम्हारा राजा इसी में रहे, इसे तोड़ते क्यों हो ?" उन्होंने कहा - "हमारे राजा की सेना बड़ी है, वाहन बहुत अधिक हैं, नौकरचाकर भी बहुत हैं; इसलिए यह भवन उनके लिए यथेष्ट नहीं है । हम इसे तोड़ेंगे और इसके स्थान पर अन्य का निर्माण करेंगे, जो हमारे राजा की सुविधाओं के अनुरूप होगा ।" राजमाता ने कहा- "शायद तुम लोग मुझे नहीं जानते, मैं राजमाता हूँ। अभी अपने पुत्र राजा ब्रह्मदत्त के पास जाती हूँ, शिकायत करती हूँ ।" महौषध के आदमी बोले -- "हम राजा के कथनानुसार ही इसे तोड़ रहे हैं । हम राजा की आज्ञा प्राप्त कर चुके हैं। इसे यदि तुम रुकवा सको तो रुकवाओ।" राजमाता बहुत क्रुद्ध हुई। यह सोचकर कि अभी इनको दण्ड दिलवाती हूँ, राजद्वार पर गई । प्रहरियों में, जो महौषध के आदमी थे, उसे रोक दिया और कहा कि भीतर मत घुस । वह बोली - "मैं रोजमाता हूँ । मुझे प्रहरियों ने कहा - "हमें मालूम है, तुम है, किसी को भीतर प्रविष्ट न होने दिया जाए। रोकते हो ?" राजमाता हो, किन्तु, राजा का यह आदेश तुम चली जाओ ।' राजमाता ने देखा, जो वह करना चाहती है, नहीं हो पा रहा है। वह रुक गई, खड़ी हो गई. अपने भवन की ओर देखने लगी । तब एक प्रहरी ने उसकी गर्दन पकड़ कर धक्का दिया । वह भूमि पर गिर पड़ी । प्रहरी बोला – “यहाँ क्या करती हो, जाती क्यों नहीं ?" राजमाता ने सोचा, यह द्वारपाल इतना दुःस्साहस कर रहा है; संभव है, राजा का ऐसा ही आदेश हो, नहीं तो ऐसा कैसे होता ? राजमाता वहाँ से लौटकर महौषध के पास आई और बोली - "तात महौषध ! मेरा घर क्यों तुड़वा रहे हो ?" तुम महौषध ने राजमाता से वार्तालाप नहीं किया । अपनी बगल में अपना जो आदमी खड़ा था, उससे पूछा - "राजमाता क्या कह रही है ?" वह बोला - "राजमाता कहती है, महौषध पण्डित घर क्यों तुड़वा रहा है ?" महौषध ने कहा – “उसे बतला दो विदेहराज के निवासहेतु भवन निर्माण के निमित्त वह तुम्हारा घर तुड़वा रहा है ।" राजमाता ने कहा - " इतने बड़े नगर में जो वह मेरा ही घर तुड़वाना चाहता है ? यह एक और कहीं भवन निर्माण करवाए।" Jain Education International 2010_05 क्या और कहीं जगह नहीं मिल रही है, लाख की राशि रिश्वत के रूप में ले ले, महौषध का इंगित समझते हुए उस आदमी ने कहा- "अच्छा, देवी ! हम तुम्हारा घर नहीं तोड़ेंगे, किन्तु, तुमने रिश्वत देकर अपना घर छुड़ाया है, यह किसी से मत कहना ; अन्यथा अन्य लोग भी आयेंगे, रिश्वत देना चाहेंगे, अपना घर छुड़ाना चाहेंगे । राजमाता बोली- “तात ! मैंने रिश्वत दी है, यह मैं कैसे कह पाऊँगी | ऐसा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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