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________________ ३२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन (खण्ड ३ सहयोग, सेवा एवं मार्गदर्शन मुझे पूर्ववत् प्राप्त है। वह बोला-"तात ! तुम आगे जा रहे हो, यह बहुत अच्छा है। तुम्हे किस वस्तु की आवश्यकता है ?" महौषध-"मझे सेना चाहिए।" विदेहराज-"जितनी आवश्यकता समझो, लिये जाओ।" महौषध-"राजन् ! अपने यहाँ चार कारागृह हैं। चारों के दरवाजे खुलवा दो। चोरों की हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ कटवा दो, उनको भी मेरे साथ कर दो।" विदेहराज--"तात ! तुम जैसा ठीक समझो, करो।" महौषध ने कारागारों के द्वार खुलवा दिये। चोरों की हथकडियाँ. बेडियां कटवा दी। वे बाहर आये। उनमें अनेकानेक बहादुर, लड़ाकू, रणकुशल वीर थे, जिन्हें जो भी कार्य सौंपा जाए, उसे सिद्ध करके ही आएं। महौषध ने उन्हें कहा-"बहादुरो ! मेरी सेवा में रहो। विदेह की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखने हेतु तुम लोगों को कुछ कर दिखाना है।" उसने उनका सत्कार-सम्मान किया। उनमें उत्साह जागा। वे सहर्ष प्राणपण से महौषध की सेवा में संलग्न हो गये। उसने काष्ठ कार, लौहकार, चर्मकार, चित्रकार आदि भिन्न-भिन्न शिल्पों में, कलाओं में निष्णात, योग्य पुरुष साथ लिये। उनके अपने-अपने कार्यों के लिए अपेक्षित सभी प्रकार के शस्त्र, औजार आदि लिये। इस प्रकार एक बड़ी सेना एवं आवश्यक साधन-सामग्री से सुसज्जित महौषध कीर्तिशाली विदेहराज के लिए आवास-स्थान का निर्माण कराने हेतु पाञ्चालराज ब्रह्मदत्त की भव्य राजधानी उत्तर पाञ्चाल नगर में आया।' महौषध की पैनी सूझ उत्तर पाञ्चाल जाते हुए महौषध ने एक-एक योजन की दूरी पर अवस्थित एक-एक गांव में एक-एक अमात्य को-मन्त्रणा-कुशल, व्यवस्था-निपुण उच्च अधिकारी को बसाया, उनको समझाया-"शीघ्र ही एक ऐसा अवसर उपस्थित होगा, विदेहराज पाञ्चालचण्डी को साथ लिये इस मार्ग से मिथिला लौटेगा, तो तुम अपने अपने गाँवों में गज, अश्व एवं रथ तैयार रखना । जब राजा पाञ्चालचण्डी सहित पहुंचे तो उन्हें अपने यहाँ के वाहनों पर आरूढ़ करवाकर शत्रुओं से परिरक्षित करते हुए आगे पहुँचा देना। आगे नये वाहन प्राप्त होंगे। पिछले वाहनों को वहाँ रखवाकर नये वाहनों पर आरूढ़ करवा देना। इस प्रकार उन्हें आगे से आगे योजन-योजन पर नये, अपरिश्रान्त वाहन मिलते जायेंगे तथा आगे से आगे पहुँचाया जाता विदेहराज निरापद, सुरक्षित अविलम्ब मिथिला पहुँच जायेगा।" __महौषध उत्तर पाञ्चाल नगर की ओर आगे बढ़ता हुआ गंगा के किनारे पर पहुँचा । उसने अपने एक प्रमुख सामन्त को, जिसका नाम आनन्दकुमार था, बुलाया। उससे कहा-"आनन्द !' तुम तीन सौ वर्धकि-काष्ठकार अपने साथ लो, गंगा के ऊपरी किनारे की ओर जाओ। वहाँ वृक्षों से ढके वन हैं, जहाँ लकड़ी कटवाओ। तीन सौ नावें बनवाओ। नगर-निर्माण में अपेक्षित शहतीर आदि चिरवाओ, साफ कराओ। हलकी लकड़ियों से नावें भरवाकर उन्हें लिये यथाशीघ्र मेरे पास आओ।" १. ततो च पायसि पुरे महोसधो, पाञ्चालराजस्स पुरं सुरम्म। निवेसनं निमापेतु वेदेहस्स यसस्सिनो ॥१३॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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