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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मन्ग जातक ३२३ होगा। मेरी लोक में सर्वत्र अपकीति होगी। लोग कहेंगे-महौषध परम प्रज्ञाशाली था, वह चाहता तो विदेहराज को बचा सकता था, किन्तु, विदेहराज द्वारा अज्ञानपूर्वक कहे गये अपशब्दों से उसके मन में खीझ थी; अतः उसने जान-बूझकर राजा की रक्षा नहीं की।
महौषध का पाञ्चाल-गमन
मेरा यह दायित्व है, मैं विदेहराज से पहले ही पाञ्चाल नगर जाऊं चूळनी ब्रह्मदत्त से मिलूं । विदेहराज के सुखपूर्वक, सम्यक् रीति से निवास करने योग्य अभिनव आवास-नगर का निर्माण करवाऊं, एक छोटी सुरंग बनवाऊं, जिसमें सुखपूर्वक चला जा सके। उससे बड़ी सुरंग एक और बनवाऊं, जो अर्धयोजन लम्बी हो। छोटी सुरंग विदेहराज के आवास-स्थान, राजमहल और बड़ी सुरंग से संयुक्त हो। चूळनी ब्रह्मदत्त की पुत्री पाञ्चालचण्डी को अपने स्वामी विदेहराज के चरणों की दासी बनाऊं, अठारह अक्षौहिणी सेना एवं सौ राजाओं द्वारा घेरा डाले रहने के बावजूद अपने राजा को वहाँ से उसी प्रकार मुक्त करा दूं,जैसे राहु के मुख से चन्द्र को मुक्त करा लिया जाए।
यों सोचते-सोचते वह अपने विचार में सार्थकता एवं सफलता की अनुभूति करता हुआ हर्ष विभोर हो उठा। सहज ही उसके मुंह से निकल पड़ा—मनुष्य का यह कर्तव्य है, जिसके घर में रहता हआ वह सुख-भोग करे, वह उसका सदा हित साधता रहे।'
महौषध ने स्नान किया, उत्तम वस्त्र पहने, आभूषण धारण किये, वह बड़ी शान से राजा के यहाँ आया, राजा को प्रणाम किया तथा एक ओर खड़ा हो गया। उसने राजा से कहा-"राजन् ! क्या तुम उत्तर पाञ्चाल नगर जाने की तीव्र उत्कण्ठा लिये हो ? क्या तुम वहाँ अवश्य जाना चाहते हो?"
राजा बोला-"हां, तात ! मैं अवश्य जाना चाहता हूँ। यदि मुझे पात्रचालचण्डी प्राप्त नहीं होती, तो मुझे इस राज्य-वैभव से क्या प्रयोजन ! तुम मुझे मत छोड़ो, मेरे साथ ही चलो। वहाँ जाने से हमारे दो लक्ष्य पूरे होंगे----मुझे परमोत्तम लावण्यवती स्त्री प्राप्त होगी तथा पाञ्चालराज के साथ हमारा मैत्री-सम्बन्ध कायम होगा, जो राजनैतिक दृष्टि से हमारे लिए बहुत लाभप्रद होगा।"
महौषध बोला- "राजन् ! मैं पाञ्चालराज ब्रह्मदत्त के सुरम्य-सुन्दर, रमणीय नगर को पहले जा रहा हूँ। यशस्वी—कीर्तिमान् विदेहराज के लिए आवास-स्थान का निर्माण कराऊंगा। मैं निर्माण-कार्य सम्पन्न करवा कर वहां से तुम्हें सन्देश भेजूं, क्षत्रियश्रेष्ठ । तब तुम आना।"
यह सुनकर राजा हर्षित हुआ कि महौषध ने मेरा परित्याग नहीं किया है । उसका
१. यस्सेव घरे भुजेय्य भोग,
तस्सेव अत्थं पुरिसो चरेय्य ॥१२८॥ २. हन्दाहं गच्छामि पुरे जनिन्द!
पञ्चालराजस्स पुरं सुरम्म । निवेसनं निमापेतुं वेदेहस्स यसस्सिनो ॥१२॥ निवेसनं निमापेत्वा वेदेहस्स यसस्सिनो। यदा ते पहिणेय्यामि तदा एय्यासि खत्तिय ॥१३०॥
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