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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
विदेहराज को यहां बुलवाकर पाञ्चालराज उसकी हत्या करेगा । उनका सख्य — मंत्री भाव स्थापित नहीं होगा ।"
मैना ने पाञ्चालराज और केवट्ट के बीच हुई मन्त्रणा तोते को बता दी। इस प्रकार माढर तोते ने मैना को फुसलाकर सारा रहस्य जान लिया । उसने बनावटी रूप में केवट्ट की प्रशंसा करते हुए कहा - "आचार्य केवट्ट उपाय निकालने में बहुत प्रवीण हैं, योग्य हैं । कोई आश्चर्य नहीं लगता, इस उपाय द्वारा वह विदेहराज का वध करवा डाले । खैर, इस प्रकार के अमंगलमय प्रसंग से हमें क्या प्रयोजन है ।" यह कहकर वह चुप हो गया । उसने वह रात उसके साथ व्यतीत की । प्रातःकाल वहाँ से विदा होने की भावना से उसने मैना से कहा— कल्याणि ! अब मैं शिवि राष्ट्र जाऊंगा और शिविराज को बतलाऊंगा कि जैसा आपने संकेत किया, मुझे बहुत अच्छा पत्नी मिल गई है। मुझे तुम केवल सात रात के लिए जाने की स्वीकृति दो। मैं वहाँ जाकर शिविराज की महारानी से कहूंगा, मुझे पाञ्चाल में मैना का साहचर्य प्राप्त हो गया है ।' मैना नहीं चाहती थी कि तोता माढर वहाँ से जाए, वह उससे वियुक्त हो गई, किन्तु, तोते ने जिस युक्ति और रीति से बात प्रस्तुत की, वह उसका विरोध नहीं कर सकी । वह बोली- माढर ! मैं तुझे सात रात की अनुज्ञा - स्वीकृति देती हूँ । यदि तुम सात रात के अनन्तर मेरे पास नहीं आओगे तो मैं ऐसा समझती हूँ, तुम मेरे प्राणान्त होने पर ही आओगे।
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तोते ने मन-ही-मन विचार किया -- चाहे तुम जीवित रहो या मर जाओ, मुझे इससे क्या ; किन्तु, बाहर से बनावटी बोली में कहा - " कल्याणि ! क्या कह रही हो ? मैं यदि सात रात व्यतीत होने के बाद भी तुम्हें नहीं देख पाऊंगा तो जीवित कैसे रह सकूंगा । वह वहाँ से उड़ा । उड़कर कुछ दूर शिवि राष्ट्र की ओर आगे बढ़ा। जब उसने देखा कि मैं आँखों से ओझल हो गया हूँ, तो उसने रास्ता बदल लिया । वह मिथिला की ओर चला । अत्यन्त त्वरापूर्वक उड़ता हुआ वह मिथिला पहुंचा, महौषध के कन्धे पर उतरा । महौषध उसे महल के ऊपर ले गया और रहस्य जानना चाहा । तोते ने सारा रहस्य उद्घाटित कर दिया, जैसा उसे मैना से ज्ञात हुआ था । *
तोते की बात सुनकर महौषध विचार में पड़ गया । उसने सोचा- मेरी राय न होने पर भी विदेहराज पाच्छाल देश जायेगा । उसका परिणाम उसकी मृत्यु के रूप में प्रकट
१. आनयत्वान वेदेहं पञ्चालानं
अथेसमो ।
ततो नं घातयिस्सति तस्स न सक्खं भविस्सति ॥ १२४ ॥ २. हन्द खो मं अनुजानाहि रत्तियो सत्तभत्तियो,
या वाहं सिविराजस आरोचेमि महेसिनी ।
eat च मे आवसथो साळिकाय उपन्तिकं ॥ १२५ ॥ ३. हन्द खो तं अनुजानामि रत्तियो सत्तभत्तियो, स चे त्वं सत्तरत्तेन नागच्छसि ममन्तिके । मञ्ञ ओक्कन्तसत्तं मे मताय आगमिस्ससि ॥ १२६ ॥ ४. ततो च सो गन्त्वान माढरो सुवपण्डितो । महोसघस्स अक्खासि साकिया वचनं इदं ॥ १२७॥
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