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________________ तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३२१ मैना ने ज्यों ही तोते के मुंह से जाने की बात सुनी, उसका दिल टूटने लगा। उसके मन में कामोद्रेक की जलन उत्पन्न हो गई थी। वह कहने लगी--"माढर शुक-पण्डित ! क्यों भूलते हो, त्वरमान को बहुत जल्द-बाज को लक्ष्मी-लक्ष्मी स्वरूपिणी सहधर्मिणी प्राप्त नहीं होती। जब तक हमारे राजा के दर्शन न हों, उससे भेंट न हो, तब तक यहीं रहो । यहाँ मृदंग आदि वाद्यों की गम्भीर, मधुर ध्वनि सुनने को मिलेगी, राजवैभव, राजश्वर्य देखने को मिलेगा।" तोता मैना दोनों परस्पर परितुष्ट थे। सांयकाल दोनों ने सहवास किया। दोनों ने परस्पर बहुत प्रेम दिखाया। तब तोते ने सोचा- अब यह मुझसे कोई भी गोपनीय बात नहीं छिपायेगी। अब मुझे इससे रहस्य खुलवाना चाहिए। वही तो मेरा मूल कार्य है। वह बोला- “मैना ! मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ।" मैना-"स्वामिन् ! कहिए।" तोता-"अच्छा जाने दो, आज हमारे जीवन का मंगलमय, उल्लासमय दिवस है। अगले दिन विचार करेंगे।" मैना-"स्वामिन् ! यदि कथ्य मंगलमय है तो अवश्य कहिए, यदि अमंगलमय वृत्तान्त है तो मत कहिए।" तोता-“है तो मंगलमय ही।" मैना-"स्वामिन् ! तब अवश्य कहें।" तोता-"बहुत अच्छा, यदि सुनने को उत्सुक हो तो सुनो, बतला रहा हूँ-अनेक जनपदों में यह तीव्र शब्द-भारी कोलाहल सुना जा रहा है कि दिव्य औषधि सदृश धुतिमय, कान्तिमय पाञ्चालराज-कन्या विदेहराज को दी जायेगी-उनका पाणिग्रहसंस्कार होगा।" मैना ने तोते का कथन सुना । वह बोली-स्वामिन् ! आज हमारा मंगलमय दिवस है, अमंगलमय बात मुख से क्यों निकालते हो?" तोता- "मैं इसे मंगलमय प्रसंग कहता हूँ, सब लोग ऐसा ही कहते हैं । तुम अमंगलमय बतला रही हो, यह क्या रहस्य है ?" मैना-स्वामिन् ! शत्रुओं को भी ऐसा मंगलमय प्रसंग न मिले।" तोता-"कल्याणि ! बतलाओ, बात क्या है ?' मैना- मैं यह नहीं बतला सकती, स्वामिन् !" तोता-"कल्याणि ! यदि मुझसे गुप्त बात छिपाओगी तो आज से हमारा सम्बन्ध विच्छिन्न हो जायेगा।" तोते द्वारा बहुत दबाव दिये जाने पर मैना बोली-"सुनो रहस्य प्रकट करती हूँ १. न सिरी तरमानस्स माढर ! सुवपण्डित ! इधेव ताव अच्छस्सु याव राजानं दक्खसि । सोस्ससि सदं मुर्तिगानं अनुभावञ्च राजिनो ॥१२॥ २. यो नु खो यं तिब्बो सद्दो तिरो जनपदे सुतो, धीता पञ्चालराजस्स ओसधी विय वणिनी। तं दस्सति विदेहानं सो विवाहो भविस्सति ॥१२२॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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