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________________ ३१८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ राजा भी केवल क्रोधावेशवश वैसा बोल गया, उसने अपने किसी कर्मचारी को वैसा करने का आदेश नहीं दिया। वस्तुतः उसके मन में बोधिसत्त्व के प्रति आदर-भाव था। महौषध का स्थैर्य बोधिसत्त्व ने विचार किया-यह राजा अज्ञ है । अपना हित, अहित नहीं समझता। काम-वासना में लिप्त होकर यह सोचता है, राजकन्या के साथ अवश्य विवाह करूंगा, किन्तु, यह नहीं जानता, इसका परिणाम कितना भयजनक होगा। विवाह के स्थान पर महाविनाश का साक्षात्कार करेगा । इसने मुझे जो अपशब्द कहे, मुझे उन पर गौर नहीं करना चाहिए; क्योंकि यह काम-गृद्धता के कारण अभी अपना आपा खोये है । इसने मेरा बड़ा उपकार किया है, मुझे बहुत वैभव दिया है, मेरी बड़ी प्रतिष्ठा की है, उच्च पद दिया है। मुझे इसकी सहायता करनी चाहिए। पहले मैं सही स्थिति का पता लगाने तोते को भेजूंगा। माढर तोता महौषध ने माढर नामक तोते को बुलवाया । वह तोता दौत्य-कर्म में बहुत निपुण था। उससे कहा--"मेरे हरे पंखों वाले मित्र ! आओ, मेरा एक कार्य करो । पाञ्चालराज चूळनी ब्रह्मदत्त के शयनागर में एक मैना निवास करती है । उससे तुम एकान्त में जानकारी प्राप्त करना । उसे सब कुछ मालूम है । चूळनी ब्रह्मदत्त और केवट्ट ब्राह्मण ने मन्त्रणा की है, उसे वह जानती है।" माढर बहुत बुद्धिमान् और कार्यकुशल था। उसने कहा- मैं यह कार्य करूंगा।" यों कहकर वह आकाश में उड़ गया। अत्यन्त त्वरापूर्वक उड़ता हुआ उत्तर पाञ्चाल पहुंचा। राजा चूळनी ब्रह्मदत्त के शयनागर में आवासित मैना के पास गया। वहाँ पहुँच कर उसने सुन्दर गृहवासिनी, मधुरभाषिणी मैना को संबोधित कर कहा"सग! तम कशल तो हो? स्वच्छन्द विहारिणी ! अनाभय-नीरोग स्वस्थ तो हो? तुम्हें खाने को शहद और खील तो प्राप्त होती है ?" __ मैना बोली- "मित्र ! मैं कुशलक्षेमयुक्त हूँ, अरुग्ण-स्वस्थ हैं, मुझे खाने को शहद के साथ खील प्राप्त होती है । तुम किस स्थान से आए हो या तुमको किसने भेजा है। अब से पहले तुम्हें कभी देखा नहीं, तुम्हारे सम्बन्ध में कभी सुना नहीं।" १. ततो च सो अपक्कम्म वेदेहस्स उपन्तिका। अथ आमन्तयी दूतं माढरं सुवपण्डितं ।। १०५।। एहि सम्म हरीपक्ख वेयावच्चं करोहि मे। अत्थि पञ्चाल राजस्स साळिका सयनपालिका ॥ १०६ ।। तं पत्थरेन पुच्छस्सु सा हि सम्बस्स कोविदा। सा तेसं सब्बं जानाति रो च कोसियस्स च ॥ १०७॥ आमोति सो पटिस्सूत्वा माढरो सुवपण्डितो। आगमासि हरीपक्खो साळिकाय उपन्तिकं ॥ १०८॥ ततोवखोसो गन्त्वान माढरो सवपण्डितो। अथ आमन्तयी सुघरं साळिकं मजुभाणिकं ॥१०९।। कच्चि ते सुघरे खमनीयं कच्चि वेस्से अनामयं । कच्चि ते मधूना लाजा लब्भते सुघरे तव ॥ ११०॥ कुसलञ्चेव ये सम्म अथो सम्म अनामयं ।। अथो मे मधुना लाजा लब्भते सुतपण्डित !! १११ ॥ कुतो नु सम्म आगम्म कस्स वा पहितो तुवं । न च मे सि इतो पुब्बे दिट्ठो वा यदि वा सुतो ।। ११२ ॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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