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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक
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आसक्त होकर, काम-गृद्ध-काम-लोलुप होकर अपनी मौत को नहीं पहचानते, केवल उस कन्या के सौन्दर्य में ही तुम्हारी दृष्टि अटकी है । राजन् ! यदि तुम पाञ्चाल जाओगे तो शीघ्र ही मृत्यु का वरण करोगे । जैसे जन-पथ पर आगत हरिण अत्यन्त भीतिग्रस्त होता है, वैसे ही तुम भीति ग्रस्त बनोगे।" विदेहराज की प्रतिक्रिया
विदेहराज ने देखा, यह महौषध मेरी बड़ी निन्दा कर रहा है । यह मुझे अपने दास के तुल्य समझता है । इसको यह भान तक नहीं है कि मैं विदेह का राजा हूँ। ब्रह्मदत्त जैसे सर्वोच्च राजा ने मेरे पास अपनी कन्या देने का प्रस्ताव भेजा है, उसे सुनकर यह अपने मुंह से एक भी शुभ वाक्य नहीं बोलता। मेरे सम्बन्ध में कितनी हीन बात कहता है कि यह राजा अज्ञानी की तरह, मांसलिप्त काँटा निगल जाने वाले मत्स्य की तरह, पथागत मृग की तरह मृत्यु को प्राप्त होगा। यह सोचकर विदेहराज क्रोध से आग बबूला हो गया। वह महौषध से बोला-"ठीक है, हम ही बहुत बड़े मुर्ख हैं, जो ऐसे शुभ प्रसंग के सन्दर्भ में तुम्हारे साथ बातचीत कर रहे हैं। अरे ! तुम तो हल की नोक पकड़े बड़े हुए हो-तुम निरे उजड़ किसान हो, तुम इन बातों को क्या समझो।"२
इस प्रकार विदेहराज ने महौषध को अपशब्द कहे, उसका परिहास किया, उसे एक मांगलिक कार्य में बाधक माना और कहा--"इसकी गर्दन पकड़कर इसे मेरे राज्य से निर्वासित कर दो-देश निकाला दे दो। मुझे प्राप्त होते स्त्री-रत्न के लाभ में यह बाधा डालना चाहता है।"
बोधिसत्त्व ने विचार किया, राजा क्रोध में है। यदि कोई राजा के कथनानुसार मेरी गर्दन पकड़ लेगा या हाथ पकड़ लेगा, मुझे निकालने लगेगा तो मेरे लिए जीवन-पर्यन्त यह अत्यन्त लज्जाजनक होगा, इसलिए अच्छा यही है, मैं खुद ही यहां से निकल चलूं । यह सोचकर उसने राजा को प्रणाम किया और वह अपने आवास-स्थान को चला गया। १. जानासि खो राज ! महानुभवो, महब्बलो चूळनी ब्रह्मदत्तो। राजा च त इच्छति कारणत्थं, मिगं यथा ओकचरेन लुद्दो ॥ १६ ॥ यथापि मच्छो बलिसं वकं मंसेन छादितं । आमगिद्धो न जानाति मच्छो मरणमत्तनो ॥१०॥ एवमेव तुवं राज ! चूळनीयस्स छीतरं। कामगिद्धो न जानासि मच्छो व मरणमत्तनो ॥१०॥ स चे गच्छसि पञ्चालं खिप्पमत्तं जहिस्ससि । मिगं पथानुपन्नं च महन्तं भयमेस्ससि ॥ १०२ ।। २. वयमेव बालम्हसे एळ मूगा,
ये उत्तमत्थानि तयी लपिम्ह। किमेव त्वं नंगलकोटिबद्धो,
अत्थानि जानासि यथापि अञ॥ १०३ ॥ ३. इम गले गहेत्वान नासेथ विजिता मम।
यो मे रतनलाभस्स अन्तरायाय भासति ॥ १०४॥
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