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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३१५
केवट्ट ने विदेह राज से कहा-"महाराज ! आप उसे कैसे पण्डित समझे बैठे हैं ? वह बड़ा अशिष्ट है। उसने आगे कहा-"वह अनार्य-उत्तम गुण रहित पुरुष है। वह शिष्टतापूर्वक वार्तालाप तक करना नहीं जानता । वह स्तब्ध-ढीठ है, सभ्यता-रहित है। मूक-गूंगे और बधिर- बहरे के सदश उसने मेरे साथ वार्तालाप तक नहीं किया।"
राजा केवट्ट से यह सुनकर मन-ही-मन गंभीर हो गया। उसने केवट्ट के कथन का न समर्थन किया और न विरोध ही किया। केवट तथा उसके साथ आए आदमियों को यात्राव्यय दिलवाया, उनके ठहरने का इन्तजाम करवाया। वैसा कर केवट्ट से कहा"आचार्य ! अब जाइए, विश्राम कीजिए।"
__ केवट्ट तथा उसके साथ आए आदमियों को विदा कर राजा विचारने लगा-महौषध अशिष्ट नहीं है। वह मधुर, प्रिय व्यवहार करने में निपुण है। केवट्ट से उसने न कुशलसमाचार ही पूछा, न भेंट कर कोई हर्ष ही व्यक्त किया । लगता है, उसकी कल्पना में भविष्य भयान्वित है। ऐसा विचार कर राजा बोला-प्रतीत होता है नरवर्य-उत्तम पुरुष-प्रज्ञावान् महौषध ने समागत प्रस्ताव का-मन्त्रणा का रहस्य, तात्पर्य यथार्थ रूपेण जान लिया है। मेरी देह में कम्पन हो रहा है । ऐसी स्थिति में अपने देश को छोड़कर कौन अन्य के हाथों में पड़े ? २
संभव है, महौषध को पाञ्चाल-राज के यहाँ से इस ब्राह्मण का आगमन प्रिय नहीं लगा हो । वस्तुतः यह मित्रता जोड़ने नहीं आया हो। मुझे काम-भोग द्वारा लुभाकर, आकृष्ट कर, अपने यहाँ ले जाकर बन्दी बनाने आया हो। शायद महौषध पण्डित को ऐसी आशंकाएँ हों।
वासनामय उद्वेग
विदेह राज अपने मन में इस प्रकार ऊहापोह करता हुआ भय-भ्रान्त बैठा था, इतने में उसके चारों पण्डित वहाँ आ गए। राजा ने सेनक से पूछा-"उत्तर-पाञ्चाल जाकर राजा चळनी ब्रह्मदत्त की राजकुमारी पाञ्चालचण्डी को ब्याह लाना क्या तुम्हें उचित प्रतीत होता है ?"
सेनक बोला-'राजन् ! समागत लक्ष्मी को कभी अस्वीकार नहीं करना चाहिए। यदि आप उत्तर पाञ्चाल जाकर राजकन्या को स्वीकार कर लेंगे तो समस्त जम्बूद्वीप में चूळनी ब्रह्मदत्त के सिवाय आपके तुल्य कोई राजा नही रहेगा; क्योंकि ब्रह्मदत्त राजाओं में सर्वोच्च है । ऐसे राजा की कन्या के साथ विवाह होने से विवाह करने वाले राजा की स्वयं
१. अनारियरूपो पुरिसो जनिन्द !
असम्मोदको थद्धो असष्मिरूपो । यथा मूगो व बधिरो व,
न किच्चत्थं अभासथ ।। ६६ ।। २. अद्धा इदं मन्त्रपदं सुदुद्दसं, अत्थो सुद्धो नरविरियेन दिट्ठो। तथा हि कायो मम सम्पवेधति, हित्वा सयं को परह्त्यमेस्सति ॥ १७॥
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