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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३१३ अवस्थित है। शत्रु को कभी ऐसा अवसर न मिले कि वह नगर-रचना का भेद पा सके; अत: केवट्ट नगर को देख पाए, यह उचित नहीं होगा। मुझे वैसी व्यवस्था करनी चाहिए। __बोधिसत्त्व ने नगर के दरवाजे से राजमहल तक तथा राजमहल से अपने आवासस्थान तक मार्ग को दोनों ओर से चटाइयों से घिरवा दिया, ऊपर भी चटाइयों से आवत करवा दिया। मार्ग को खूब सजवाया। उसे चित्रांकित करवाया। भूमि पर पुष्प-विकीर्ण करवाये। जलभृत कलश रखवाये। कदलीवृक्ष बँधवाये । ध्वजाएँ लगवाईं। केवट्ट ने नगर में प्रवेश किया। उसे विशेष रूप से विरचित, सुविभक्त नगर का स्वरूप देखने को नहीं मिला। उसने विचार किया, राजा ने मेरे स्वागतार्थ मार्ग को सुसज्जित करवाया है। यह बात उसके ध्यान में नहीं आ सकी कि वह नगर को यथावत् रूप में न देख सके, एतदर्थ नगर को आवृत रखने का यह उपक्रम है। ___केवट्ट राजा के पास पहुँचा । पाञ्चालराजा द्वारा प्रषित उपहार भेंट किये, कुशलसमाचार पछे और एक तरफ बैठ गया। राजा ने केवट का सत्कार किया, सम्मान किया। केवट ने अपने आने का उद्देश्य प्रकट करते हुए कहा-'आपके साथ हमारा राजा मैत्री-सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है; अतः उसने आपको भेंटस्वरूप रत्न भेजे हैं । अब दोनों राज्यों में मंजुभाषी, प्रियभाषी दूत आते जाते रहें। वे (दूत) आनन्दप्रद मृदु वाणी बोलें, उनकी सुखद, मदुल वाणी द्वारा सन्देशों का परस्पर आदान-प्रदान हो। पांचाल तथा विदेह के नागरिक दोनों एक हों दोनों में एकता भाव जागे॥१ यह कहकर केवट्ट बोला--"हमारा राजा किसी अन्य अमात्य को आपके यहाँ भेजने का सोचता था, पर, उसने यह मोचकर कि कोई दूसरा भलीभाँति बात समझा नहीं सकेगा, मुझे ही भेजा। मुझे कहा कि विदेहराज को यह अवगत कराकर अपने साथ लेते आओ; अत: मेरा आपसे अनुरोध है, आप मेरे साथ चलें। रूप लावण्यवती राजकूमारी प्राप्त होगी तथा हमारे राजा के साथ मित्रता जुड़ेगी।" राजा केवट्ट का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हुआ। वह सुन्दर राजकुमारी प्राप्त होने की बात से विशेष आकृष्ट हुआ, उस ओर उसकी आसक्ति हुई। उसने कहा- "आचार्य ! धर्मयुद्ध के प्रसंग पर तुम तथा महौषध पण्डित परस्पर विवादापन्न हो गये थे। जाइए, महौषध से भेंट कीजिए। आप दोनों पण्डित हैं, कटुता के लिए परस्पर क्षमा-याचना कर लें। फिर आपस में परामर्श कर यहाँ आएँ।" राजा से यह सुनकर केवट्ट पण्डित महौषध से भेंट करने हेतु चला। महौषध को यह सूचना प्राप्त थी। उसने उस दिन सबेरे घृत-पान कर विरेचन ले लिया। उसने मन-हीमन विचार किया, उस दुष्ट ब्राह्मण के साथ मेरा वार्तालाप ही न हो, यही अच्छा है। अपने घर को भी खूब गीले गोबर से लिपवा दिया। स्तंभों पर तैल लगवा दिया। अपने सोने के लिए अपेक्षित एक चारपाई के अतिरिक्त बाकी के सब पीढ़े, खा आदि वहाँ से १. राजा सन्थवकामो ते रतनानि पवेच्छति । आगच्छन्तु ततो दूता मञ्जुका प्रियभाणिनो ॥६३॥ भासन्तु मुदुका वाचा या वाचा पटिनन्दिता । पञ्चाल च विदेहा च उभी एका भवन्तु ते॥१४॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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