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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३०७ केवट्ट ने कहा-"राजन् ! अब हम नगर का बाहर से संपर्क सर्वथा अवरुद्ध कर दें। छोटे दरवाजे से भी सब किसी का आवागमन रोक दें, न किसी को भीतर जाने दें, न किसी को बाहर आने दें। लोगों का जब बाहर निकलना बिलकुल बन्द हो जाएगा तो वे आकुल हो जाएंगे, घबरा उठेगे, मुख्य दरवाजा खोल देंगे। हम नगर पर कब्जा कर लेंगे, शत्रुओं को अधीन कर लेंगे।" महौषध की गुप्तचर-व्यवस्था इतनी स्फूर्त और चुस्त थी कि उधर जो भी योजना बनती, तत्काल उसके पास खबर पहुँच जाती। उपयुक्त मन्त्रणा भी अविलम्ब उसके पास पहुंच गई। उसने सोचा-यदि ये बहुत समय तक यहाँ घेरा डाले पड़े रहे तो यह सुखद नहीं होगा । अब कल्याण इसी में है कि बुद्धि कौशल द्वारा इन्हें जैसे भी हो, यहाँ से भगा देना चाहिए। उसने किसी वाक्-प्रवीण, परामर्श-कुशल व्यक्ति की खोज की। उसे अनुकेवट्ट नामक पुरुष का ध्यान आया। उसने उसे अपने पास बुलाया और कहा-"आचार्य ! तुमको हमारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित करना है।" अनुकेवट्ट बोला-'जैसा आप कहेंगे, करूँगा, बतलाएँ।" महौषध ने कहा- 'तुम पर कोटे पर खड़े रहो । जब हमारी ओर के लोग असावधान हों, तब तुम ब्रह्मदत्त के सैनिकों की ओर, उसके आदमियों की ओर पूए, मत्स्य-मांस आदि फेंकते रहो, उनसे कहो-आतुर मत बनो, यह खाओ, कुछ दिन यहाँ और ठहरने का प्रयास करो। जैसे पिंजरों में मुर्गे बन्दी होते हैं, नगर के लोग बन्दी हैं। वे जल्दी हिम्मत हार जाएँगे, नगर का दरवाजा खोल देंगे। तुम लोग विदेहराज को तथा नीच महौषध को बन्दी बना लेना। "हमारे आदमी जब तुम्हें यह कहते सुनेंगे, वे तुम्हारे पर क्रोधित होने का भाव प्रदर्शित करेंगे, बुरी तरह गालियां देंगे, धमकाएँगे। ब्रह्मदत्त के लोगों के देखते हुए वे तुम्हें पकड़ेंगे, पैर पकड़कर घसीटेंगे, बांस की फट्टियों से पीटने का स्वांग करेंगे, तुम्हारे सिर के बालों को पकड़ उनमें इंटों का लाल बुरादा बिखेर देंगे, गले में रक्त कनेर की माला डाल देंगे, कुछ मार-पीट करेगे, पीठ पर मार के निशान बना देंगे। फिर तुम्हें प्राचीर पर चढ़ाएंगे, बड़ी से टोकरी में बिठाएँगे, रस्से द्वारा ब्रह्मदत्त की सेना की तरफ बाहर उतार देंगे। वे यह कहते हुए कि तू रहस्यभेदक है, चोर है, राष्ट्रद्रोही है, तुम्हें ब्रह्मदत्त के सैनिकों को सौंप देंगे । सैनिक तुम्हें राजा ब्रह्मदत्त के पास ले जाएंगे। राजा तुमसे प्रश्न करेगातुम्हारा क्या कसूर है ? तब तुम राजा को उत्तर देना-महाराज ! मैं पहले बहुत संपत्तिशाली था। महौषध ने मेरे विरुद्ध राजा से शिकायत की कि यह हमारे राज्य का भेद शत्रुओं को देता है। उसकी शिकायत पर राजा ने मेरा सब वैभव छीन लिया। महौषध ने मुझे इस प्रकार दरिद्र बना दिया, मेरी कीर्ति, प्रतिष्ठा सब मिटा दी। मैंने मन-ही-मन निश्चय किया, मैं महौषध से बदला लूं, उसका शिरच्छेद करवाऊँ, तब मेरे जी में जी आए। मेरे मन में यह संकल्प था। मैं आपके आदमियों को जब देखता, वे घबरा रहे हैं, यह सोचकर कि वे हिम्मत न हार जाएँ, उनको खाद्य,पेय देता। यह देखकर महौषध ने मेरे प्रति अपने मन में रहे पूर्ववर्ती शत्रुभाव को स्मरण कर मेरी यह दशा करवा दी। राजन् ! आपके सैनिक, सेवक सारी स्थिति से जानकार हैं ? "अनुकेवट्ट ! इस प्रकार राजा को तरह तरह से समझा कर विश्वास दिलाना और कहना-मैं आपका हितैषी हूँ। महाराज ! अब आप निश्चिन्त हो जाइए । विदेहराज Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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