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________________ ३०६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ मुख मस्तक को भूमि के साथ इस प्रकार रगड़ा कि उससे रक्त निकलने लगा । फिर धीरे से उसी को सुनाते हुए कहा- "अन्धे ! बेवकूफ ! तू मुझसे प्रणाम करवाना चाहता था ?" ऐसा कह गर्दन पकड़ उसे दूर झटक दिया । वह उठा और वहाँ से भाग छूटा। बोधिसत्त्व के आदमी सावधान थे ही। उन्होंने मणिरत्न को उठा लिया । बोधिसत्त्व ने केवट्ट को सम्बोधित कर "उठिए, मुझे प्रणाम मत कीजिए ।" यह जो कहा था, वह सर्वत्र फैल गया । पराजय लोगों ने एक साथ जोर से कोलाहल किया, हल्ला किया कि केवट्ट ब्राह्मण ने महौषध पण्डित के चरणों में प्रणाम किया । ब्रह्मदत्त आदि सभी राजाओं ने केवट्ट को महौषध के पैरों पर लगा देखा था । उन्होंने यही समझा, हमारे पण्डित ने महौषध को प्रणाम किया, हम पराजित हो गये । संभव है, महौषध अब हमें प्राण लिए बिना न छोड़े । वे अपने- अपने घोड़ों पर सवार हुए और उत्तर पाञ्चाल की दिशा में भाग छूटे। जब उनको भागते देखा तो बोधिसत्त्व के मनुष्यों ने फिर शोर किया - "राजा चूळनी ब्रह्मदत्त अपने अनुगामी सौ राजाओं के साथ भागा जा रहा है ।" यह सुनकर भागने वाले राजा मौत के भय से और अधिक त्वरा के साथ भागने लगे | उनकी सेनाएँ छिन्न-भिन्न हो गईं । ब्रह्मदत्त की विजय-योजना धूल में मिल गई । महौषध के आदमी शोर मचाते रहे, हल्ला करते रहे । इस प्रकार बिना रक्तपात के उन्होंने एक बड़ी लड़ाई जीत ली । केवट्ट की भर्त्सना सेना से संपरिवृत बोधिसत्त्व नगर में लौट आया । ब्रह्मदत्त, सहवर्ती राजा तथा सैनिक भागते-भागते कुछ ही देर में तीन योजन तक पहुँचे । अश्व पर आरूढ केवट्ट अश्व को बेतहाशा दौड़ाता हुआ, अपने मस्तक से चूते खून को पोंछता हुआ मागली हुई सेना तक पहुँचा । कहने लगा- “भागो मत, मैंने महौषध को प्रणाम नहीं किया।" सैनिक रुके नहीं, उसकी बात सही नहीं मानी। उसे गालियाँ देते हुए तथा उसका परिहास करते हुए कहते गये"अरे पापिष्ट दुष्ट ब्राह्मण! कहा तो तूने यह था कि मैं धर्म-युद्ध करूंगा और जाकर तुमने एक ऐसे व्यक्ति को प्रणाम किया, जो तेरे पोते के बराबर भी नहीं है । ऐसा कोई कार्य नहीं है, जिसे 'तुम न कर सको। तुम अनुचित से अनुचित कार्य कर सकते हो। वह अत्यन्त त्वरा पूर्वक घोड़े को भगाता रहा, पुनः सैनिकों तक पहुँचा और उनको कहा—“तुम लोग मेरे कथन पर भरोसा करो, मैंने महौषध को प्रणाम नहीं किया । उसने मेरे मन में मणि रत्न लेने का लोभ उत्पन्न कर मुझे प्रवञ्चित किया है, ठगा है ।" यों बहुत कुछ कह सुनकर उसने सैनिकों, राजाओं तथा ब्रह्मदत्त को किसी तरह बड़ी कठिनाई से आश्वस्त किया । सेना का जी जमाया । सेना इतनी विशाल थी कि तद्गत सैनिक एक-एक मुट्ठी धूल या पत्थर का एक-एक टुकड़ा भी फेंकते तो खाई भर जाती, धूल या पत्थर के टुकड़ों का ढेर नगर के प्राचीर से भी कहीं अधिक ऊँचा हो जाता, किन्तु, बोधिसत्त्वों के संकल्प सदा निर्बाध रहते हैं, परिपूर्ण होते हैं । किसी एक भी मनुष्य ने धूल या पत्थर के हाथ तक नहीं लगाया । वे वापस अपने शिविर में लौट आये । कूट-युक्ति का प्रयोग राजा ब्रह्मदत्त ने केवट्ट से पूछा Jain Education International 2010_05 - " अब हम क्या करें ?" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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