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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३०५ बुलाया। उसने राजा को नमस्कार किया और वह एक तरफ खड़ा हो गया। राजा ने कहा-“महौषध ! क्या कहना चाहते हो?" महौषध-"मैं धर्म-युद्ध के मञ्च पर जा रहा हैं।" राजा- मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?" महौषध-"राजन् ! मैं केवट्ट ब्राह्मण को मणि द्वारा प्रवञ्चित करना चाहता हूँ। आपके यहाँ अष्टवक्रयुक्त-आठ स्थानों पर वक्र--बांका जो अमूल्य मणिरत्न है, वह मुझे दे दीजिए।" राजा बोला "बहुत अच्छा तात ! उसे लिये जाओ।" राजा ने वह अमूल्य रत्न खजाने से मंगवाया तथा महौषध को दे दिया। महौषध ने मणिरत्न लिया, राजा को प्रणाम किया, राजभवन से उतरा । फिर उसने अपने सहजात-अपने जन्म के दिन उत्पन्न अपने सहचर एक सहस्र योद्धाओं को साथ लिया। वह नब्बे सहस्र काषार्पण मूल्य के श्वेत अश्व जुते रथ पर आरूढ़ हुआ। नगर के दरवाजे पर पहुँचा । केवट्ट भी वहाँ खड़ा था। वह महौषध के आने का बड़ी तीव्र उत्कण्ठा से इन्तजार कर रहा था। निरन्तर आँखें फाड़े देखते रहने से प्रतीत होता था, मानो उसकी गर्दन प्रलम्ब हो गई हो । बड़ी तेज धूप थी। उसके शरीर से पसीना चू रहा था। महौषध पण्डित अपने बहुसंख्यक अनुयायियों से घिरा था। वह सिंह की तरह निर्भय एवं रोमाञ्चशून्य था। उसने द्वार खुलवाया, नगर से बाहर आया, रथारूढ़ हुआ, शेर की तरह मुस्तैदी से चला । राजा ब्रह्मदत्त के अधीनस्थ सौ राजाओं ने उसका रूप-सौन्दर्य एवं द्युतिमत्ता देखी तो उन्हें पता चला, श्रीवर्धन सेठ का अंगज यह महौषध पण्डित है, जिसके तुल्य प्रज्ञाशील सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में अन्य कोई नहीं है । वे सहस्र बार यही कहते गये । देववृन्द से संपरिवत्त इन्द्र की ज्यों महौषध अप्रतिम शोभा एव ऐश्वर्य के साथ हाथ में वह दिव्य मणिरत्न लिये केवट्ट की ओर बढ़ा। केवट्ट ने जब महौषध को देखा तो वह वह अस्थिर-सा अस्तव्यस्त-सा होने लगा। वह महौषध की ओर आगे बढ़ने लगा, कहने लगा--"महौषध ! मैं भी पण्डित हूँ, तुम भी पण्डित हो । हमारा एक ही कार्य-क्षेत्र है । हम तुम्हारे निकट इतने समय से टिके हैं, तुमने हमको कोई उपहार तक नहीं भेजा।" बोधिसत्त्व ने जबाब दिया--'पण्डित ! मैं तमको देने लायक उपायन खोजता रहा, अब तक नहीं मिला : आज ही मुझे यह दिव्य मणिरत्न प्राप्त हुआ है। लोक में इसके सदृश अन्य कोई मणिरत्न नहीं है ।" केवट्ट ने महौषध के हाथ में दिव्य, देदीप्यमान मणिरत्न को देखा, मन-ही-मन विचार किया-महौषध मुझे यह भेंट में देना चाहता है। उसने यह सोचकर अपना हाथ फैला दिया और कहा- "लाओ।" महौषध ने केवट्ट के फैले हुए हाथ के किनारे पर मणिरत्न को डाल दिया। मणिरत्न अंगुलियों पर पड़ा । वह वजन में भारी था । केवट्ट उसे अंगुलियों पर न सम्हाल सका । वह उसकी अंगुलियों से फिसलकर नीचे गिर गया, बोधिसत्त्व के पैरों में जा रुका। केवट्ट के मन में मणिरत्न लेने का लोम समाया था । वह उसे लेने के लिए बोधिसत्त्व के पाँवों की ओर झुका। बोधिसत्त्व ने एक हाथ से उसका कन्धा पकड़ा, दूसरे हाथ से पीठ पकड़ी। मुंह से यह कहता रहा-"आचार्य ! उठिए, मैं तो आपसे आयु में बहुत छोटा हूँ, आपके पौत्र के सदृश हूँ। उठिए, मुझे प्रणाम मत कीजिए। किन्तु, भीतर-ही-भीतर उसको इस तरह दबाये रखा कि वह इधर-उधर हिल भी न सके। औरों को न मालूम होने देते हुए उसके Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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