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________________ सत्त: आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३०३ के आशय, परिकल्पनाएँ कभी अपूर्ण नहीं रहतीं। धान के पौधे केवल एक रात्रि में उगकर, बढ़कर इतने ऊँचे हो गये कि प्राचीर से ऊपर उठे हुए दृष्टिगोचर होने लगे। ब्रह्मदत्त ने यह देखा, उसने साश्चर्य पूछा-"परकोटे के ऊपर ये हरे-हरे क्या दृष्टिगोचर हो रहे हैं ?" महौषध पण्डित के छद्मवेषी गुप्तचर, जो बनावटी तौर पर ब्रह्मदत्त के विश्वस्त सेवक बने थे, उसके पीछे लगे रहते। वे झट बोल पड़े-"राजन् ! जब 'महौषध को यह आशंका हुई कि उसके यहां धान्य-संकट उपस्थित किया जा सकता है तो उसने पहले ही राष्ट्र से धान्य एकत्र करवाया और नगर के सारे कोठे भरवा लिये । जो धान्य बचा, उसे प्राचीर के समीप गिरवा दिया। धूप में पड़े धान्य पर वृष्टि का जल पड़ने से पौधे उग आये। मैं भी एक दिन कार्यवश छोटे दरवाजे से नगर में प्रविष्ट हुआ। मैंने प्राचीर के पास पड़ा धान्य देखा। मुट्ठी भर उठाया, उसे गली में डाल दिया। मैंने तो योंही जिज्ञासा एवं कुतूहल-वश उठाया था। लोग मेरा परिहास कर बोले- 'प्रतीत होता है, तुम भख के मारे हो, धान्य को अपने वस्त्र के पल्ले में बांध लो और अपने घर ले जाओ, पकाकर खा लो।" राजा ब्रह्मदत्त ने यह सुना तो उसका दिल बैठ गया। उसने केवट्ट से कहा"आचार्य ! धान्य का संकट उपस्थित कर हम इस नगर को कब्जे में नहीं कर सकते । यह उपाय भी कारगर नहीं होगा।" इंधन-निरोध केवट्ट ने कहा- “खैर, दूसरा उपाय करेंगे। धान्य, जल सब हो, किन्तु, यदि इंधन न हो तो भोजन तैयार नहीं होता। हम इंधन का संकट उपस्थित करेंगे; क्योंकि इंधन तो नगर में नहीं होता, जंगल से आता है।" राजा बोला-आचार्य ! आपकी योजना उपयुक्त है।" महौषध के गुप्तचर सतत सावधान थे, कार्य-कुशल थे। उन्होंने झट महौषध को यह समाचार भेज दिया । महौषध ने तत्काल, जितने ऊँचे धान्य के पौधे दृष्टिगोचर होते थे, उतने ऊँचे-ऊँचे ईधन के ढेर लगवा दिये । महौषध के आदमी परकोटे पर चहलकदमी करते हुए ब्रह्मदत्त के सैनिकों का, लोगों का परिहास करते। उनकी ओर बड़ी-बड़ी लकड़ियां फेंकते और कहते-"तुम भूखे हो तो लो, इन लकड़ियों से पतली-पतली खिचड़ी पका लो और पी लो।" ब्रह्मदत्त ने पूछा-"परकोटे से ऊपर उठे हुए लकड़ियों के ढेर दृष्टिगोचर हो रहे हैं, यह क्या बात है ?" महौषध के गुप्त पुरुषों ने बताया-"राजन् ! आशंकित इंधन संकट का विचार कर महौषध ने पहले से ही बहुत-सी लकड़ियाँ मंगवा लीं, घरों के पीछे के हिस्सों में रखवा दीं। जो वहां नहीं समा सकी, उन्हें नगर के परकोटे के समीप रखवा दिया। ये उन्हीं लकड़ियों के ढेर हैं । राजन् ! नगर में लकड़ियों का विपुल संग्रह है।" राजा को यह बात जंच गई। उसने केवट्ट से कहा-'आचार्य ! इंधन का नगर में भारी संग्रह है। इंधन का संकट उत्पन्न नहीं किया जा सकता। हमारा यह उपाय भी निरर्थक सिद्ध होगा।" केवट्ट ने कहा- "राजन् ! मेरे पास एक अन्य उपाय भी है।" राजा बोला- "आचार्य ! मुझे तुम्हारे उपायों का अन्त नजर नहीं आता। हम किसी भी तरह विदेहराज को नहीं जीत सकते। हम वापस लौटेंगे।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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