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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २६६ अकस्मात् उसके मुंह से निकल पड़ा--अब हमारे प्राण नहीं बचेंगे। ब्रह्मदत्त हम सबकी जान ले लेगा। अत्यन्त घबराहट के साथ वह उनसे बातचीत करने लगा।
महौषध को जब यह विदित हुआ कि ब्रह्मदत्त चढ़ आया है, उसने नगर को घेर लिया है तो वह सिंह के सदृश सर्वथा निर्भय बना रहा । उसने नगर की सुरक्षा की व्यवस्था की। राजा को आश्वासन देने हेतु राजभवन में आया। राजा को नमस्कार किया, एक तरफ खड़ा हो गया। राजा ने ज्यों ही उसे देखा, उसके मन में ढाढस बँधा। उसने विचार किया, महौषध पण्डित के सिवाय हमें इस संकट से और कोई उबार नहीं सकता। राजा ने कहा"पाञ्चाल का राजा ब्रह्मदत्त समस्त सेनाएं लिये आ पहुँचा है । पाञ्चाल सेना अप्रमेयअपरिमित-अपार है। पीठ पर भारी बोझा उठाये ले चलने में सक्षम पदाति-सेना के पैदल सिपाही बड़े लड़ाकू हैं । सैनिक वृन्द सभी प्रकार के युद्धों में, युद्ध-विधियों में प्रवीण हैं । वे तत्क्षण स्फूर्ति से शत्रुओं के शिरच्छेद करने में समर्थ हैं । दुन्दुभि, ढोल तथा शंख आदि की आवाज सुनते ही वे जाग उठते हैं। वे आवरणों-कवच आदि अंगरक्षोपकरणोंयुद्धालंकारों से विभूषित हैं। पाञ्चालराज की सेना ध्वजाओं, हाथियों, घोड़ों, शिल्पियों तथा शूरवीरों से सुप्रष्ठित है—संयुक्त है। कहा जाता है इस सेना में दस प्रज्ञाशील पण्डित हैं, जो एकान्त में विचार-विमर्श करते हैं। राजमाता ग्यारहवीं परामर्श दात्री हैं, पाञ्चाल राज जिसके नियमन में हैं । यहाँ एक सौ अनुयुक्त-ब्रह्मदत्त के अनुगामी, यशस्वी-कीति मान् क्षत्रिय-राजा हैं, जिनके राज्य ब्रह्मदत्त ने स्वायत्त कर लिये हैं, जो अन्तर्व्यथा लिये हैं. जो पाञ्चालराज के निर्देशन में हैं। राजा जैसा ब्रह्मदत्त कहे-आदिष्ट-निर्दिष्ट करे, वैसा करने वाले हैं, मन से न चाहते हुए भी मधुरभाषी हैं, मन से अनुमत न होते हुए भी पाञ्चालराज के वशगत होने से उसका अनुसरण कर रहे हैं। पाञ्चाल राज की सेना ने मिथिला नगरी को पूरी तरह घेर लिया है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह सेना विदेह की राजधानी का चारों ओर से खनन कर रही हो, उसकी जड़े खोद रही हो। जैसे आकाश में चारों ओर तारे छाये रहते हैं, उसी प्रकार सैनिक मिथिला नगरी के चारों ओर छा गये हैं। महौषध ! अब तुमही कोई उपाय खोजो, जिससे इस विपत्ति से हम छूट सकें।" १. पञ्चालो सब्बसेनाय ब्रह्मदत्तो समागतो।
सायं पञ्चालिया सेना अप्पमेय्या महोसध ।।८४॥ पिट्टि मती पत्तिमती सब्बसंगामको विदा। ओहारिणी सद्दवती भेरिसंखप्पबोधना ॥५॥ लोहविज्जालंकारामा छजिनी वामरोहिणी। सिप्पियेहि सुसम्पन्ना सूरेहि सुप्पतिट्ठिता ॥८६॥ दसेत्थ पण्डिता आहु भूरिपा रहोगमा। माता एकादसी रओ पञ्चालियं पसासति ।।७।। अथेत्थेकसतं खत्या अनुयुत्ता यसस्सिनो। अच्छिन्नरट्टा व्यथिता पञ्चालिनं वसं गता ॥८८|| यं वदा तक्करा रञो अकामा पियमाणिनो। पञ्चालमनुयायन्ति अकामा वसिनो गता ॥८६॥ ताय सेनाय मिथिला तिसन्धि परिवारिता । राजधानी विदेहानं समन्ता परिखञ्जति ॥१०॥ उद्धं तारक जाता व समन्ता परिवारिता। महोसध! विजानाहि कथं मोक्खो भविस्सति ॥२॥
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