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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २६१ वह इस भय से कि किसी और को न बता दे, दास की ज्यों उसके वशगत रहता है, उससे आतंकित रहता है, उसकी हर बात को सहता रहता है।' "किसी पुरुष के रहस्य को जितने अधिक लोग जानते हैं, उसकी उद्विग्नता उतनी ही बढ़ती रहती है, वह उतना ही दुःखित होता है; इसलिए किसी को अपना रहस्य उद्घाटित नहीं करना चाहिए। “यदि दिन में गोपनीय विषय पर परामर्श करना हो तो बहुत सावधानी से करना चाहिए, बहुत सोच-विचार कर करना चाहिए। रात में देर तक वचन उद्गीर्ण न करता रहे-परामर्शात्मक वार्तालाप न करे । ऐसा करने से विचार-मन्त्रणा औरों के कानों में पड़ जाती है, जिससे रहस्य फूट जाता है।'' राजा ने जब बोधिसत्त्व का धर्माख्यान सुना तो वह बहुत प्रभावित हुआ। वह सेनक आदि पण्डितों पर बहुत क्रुद्ध हुआ, बोला-"ये खुद राज्य के शत्रु हैं, महौषध पण्डित को निष्कारण मेरा शत्रु बनाना चाहते हैं। राजा ने अपने आरक्षि अधिकारियों को आज्ञा दी-"इनको नगर से बाहर ले जाओ। सूली पर चढ़ाकर या इनके सिर काट कर इनको मौत के घाट उतार दो।" आरक्षि अधिकारियों ने उनके हाथ पीछे की ओर बांध दिये। उन्हें साथ लिये वे नगर से बाहर की ओर रवाना हुए। ले जाते हुए वे उन्हें राजमार्ग में प्रत्येक चतुष्पथ पर खड़े करते और उनके सौ-सौ कोड़े लगाते । बोधिसत्त्व ने यह देखा, करुणार्द्र हो राजा से निवेदन किया- "देव ! ये आपके पुरातन अमात्य हैं-परामर्शक हैं। आप कृपया इनके कसर माफ़ कर दें।' राजा ने बोधिसत्त्व का अनुरोध स्वीकार किया; उन चारों को बुलवाया और आदेश दिया कि तुम महौषध पण्डित के दास बनकर रहो। यह कहकर राजा ने उन्हें महौषध पण्डित को सौंप दिया। महौषध ने उनको अपनी दासता से मुक्त कर दिया, पहले की तरह स्वतन्त्र कर दिया। राजा को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने सोचा-ऐसे दुर्जन, दुर्विचारयुक्त पुरुषों का मेरे राज्य में रहना उचित नहीं है। उसने उन्हें आदेश दिया कि तुम मेरे राज्य से निकल जाओ, मेरे राज्य की सीमा के भीतर मत रहो। १. गुय्हमत्थमसम्बुद्धं, सम्बोधयति यो नरो। मन्तभेदतया तस्स, दासभूतो तितिक्खति ॥८१।। २. यावन्तो पुरिसस्सत्थं, गुय्हं जानन्ति मन्ति तं। तावन्तो तस्स उब्बेगा, तस्मा गुय्हं न विस्सजे ॥२॥ ३. विविच्च मासेय्य दिवा रहस्सं रत्तिं गिरं नातिवेलं पमुञ्चे। उपस्सुतिका हि सुणान्ति मन्तं , तस्मा मन्तो खिप्पमुपेति भेदं ।। ८३ ॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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