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________________ २६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन गत है । यह गुप्त बात इसने एकान्त में अपनी माता के समक्ष प्रकट की, उसे भी मैंने सुन लिया।" राजा ने देविन्द से पूछा-"क्या यह सच है ?" देविन्द ने उत्तर दिया-"हाँ महाराज ! यह सच है ।" राजा ने यह सुनकर देविन्द को भी कैदखाने में डाल दिया। बोधिसत्त्व का वध करने हेतु उद्यत चारों पण्डित जेल में चले गये। बोधिसत्त्व ने कहा- "इसी कारण मेरा कथन था, अपनी गुप्त बात दूसरे के आगे प्रकट नहीं करनी चाहिए । प्रकट करने वाले घोर संकट में पड़ जाते हैं।" बोधिसत्त्व ने धर्म का आख्यान करते हुए कहा- "गोपनीय वस्तु को गुप्त रखना ही उत्तम है। गोपनीय का आविष्करण-प्रकटीकरण प्रशस्त नहीं होता---उत्तम नहीं होता, उससे कुछ भी लाभ नहीं होता। जब तक कार्य निष्पन्न-परिसम्पन्न न हो जाए, तब तक धीर पुरुष को चाहिए कि वह उसे गुप्त रखे । जब कार्य सिद्ध हो जाए तो खुशी से उसे प्रकट करे। "मनुष्य अपने गुह्य-रहस्य को उद्घाटित न करे । जिस प्रकार धन के निधान को रक्षा की जाती है, वह उसी प्रकार उसकी रक्षा करे प्राज्ञ-बुद्धिशील मनुष्य को चाहिए कि वह इस दिशा में जागरूक रहे । उस द्वारा रहस्य का प्रकटीकरण उत्तम नहीं है। पण्डित-"विवेकशील पुरुष को चाहिए, गोपनीय बात न स्त्री के समक्ष व्यक्त करे, न शत्रु के समक्ष प्रकट करे, न अपने को भौतिक पदार्थ देने वाले के समक्ष प्रकट करे तथा न किसी ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रकट करे, जो मन की बात खोज निकालना चाहता हो। “जो पुरुष अपनी अज्ञात– गोपनीय बात को किसी के आगे प्रकट कर देता है, तब १. अट्टवंक-मणिरतनं उळारं, सक्को ते अददा पितामहस्स । देविन्दस्स गतं तदज्जहत्थं, मातुच्च रहोगतो असंसि गुय्हं पातुकतं सुतं ममेति ॥७७ ॥ २. गुय्हस्स हि गुय्हमेव साधु, नहि गुरहस्स पसत्थमावि कम्म । अनिप्फादाय सहेय्य धीरो, निप्फन्नस्थो यथासुखं भणेय्य ॥ ७८ ॥ ३. न गुय्हमत्थं विवरेय्य, रक्खेय नं यथानिधि । नहि पातुकतो साधु, गुय्हो अत्थो पजानता ॥६॥ ४. तिया गुय्हं न संसेय्य, अमित्तस्स च पण्डितो। योचामिसेन संहीरो, हदयस्थेनो च यो नरो ॥५०॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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