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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
महौषध ने मोदक को फोड़ा । उस में पत्र निकला । उसने पत्र पढ़ा । वह षड्यन्त्र से अवगत हुआ, जिसकी कुछ भनक उसके कानों में पड़ चुकी थी ।
अब उसे जो करना था, उसका उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया और वह अपने बिछौने पर जाकर लेट गया ।
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सेनक आदि चारों पण्डित बहुत सवेरे ही आकर द्वार पर खड़े हो गये । सेनक अपने हाथ में खड्ग लिये था । वे प्रतीक्षा करते रहे, पर, महौषध पण्डित उधर नहीं गया । वे निराश एवं दुःखित होकर वहाँ से चले गये, राजा के पास पहुँचे । राजा ने जिज्ञासा की - "पण्डितो ! क्या महौषध का वध कर दिया ?"
उन्होंने कहा - "
- "राजन् ! वह दृष्टिगोचर ही नही हुआ ।"
महौषध ने सूरज उगते ही नगर को अपने नियन्त्रण में लिया । स्थान-स्थान पर सैनिक तैनात कर दिये । वह रथ पर आरूढ़ हुआ । लोगों को अपने साथ लिया । भारी मीड़ के साथ वह राजभवन के दरवाजे पर पहुँचा । राजा महल की खिड़की खोले खड़ा था, राजपथ की ओर देख रहा था । महौषध रथ से नीचे उतरा, राजा को नमस्कार किया । राजा ने यह देखकर सोचा, यदि इसके मन में मेरे प्रति शत्रु-भाव होता तो यह मुझे इस प्रकार रथ से उतर कर प्रणाम नहीं करता । राजा ने महौषध को भीतर बुलाया । महौषध भीतर गया । राजा बिछौने पर बैठा । महौषध एक ओर बैठ गया। सेनक आदि चारों पण्डित पहले ही वहाँ बैठे थे । राजा ने बिलकुल अनजान की तरह महौषध से पूछा – तात् ! कल रात से तुम गये हुए हो, अब आये हो। तुमने क्या कुछ सुना ? क्या तुम्हारे मन कुछ आशंका उत्पन्न हुई ? परम प्रज्ञा-शालिन् ! तुमको किसने क्या कहा, बतलाओ हम तुम्हारी बात सुनें ।""
मेरे
महौषध ने कहा - " आपने इन चारों पण्डितों के कथन पर विश्वास कर लिया, वध का आदेश दिया, मैं इसी कारण नहीं आया ।"
" राजन् ! 'प्रज्ञावान् महौषध वध्य है" अपने रात्रि के समय यह रहस्य अपनी पत्नी को एकान्त में बतलाया । मैंने उसे सुन लिया ।""
महौषध के मुख से यह सुनते ही राजा की त्यौरियाँ चढ़ गईं। उसने क्रोधाविष्ट दृष्टि से रानी की ओर देखा । राजा ने सोचा, संभवतः इसी ने रात्रि के समय महौषध के पास सन्देशा भिजवाया होगा ।
महौषध ने यह माँप लिया । वह बोला - "राजन् ! देवी पर क्यों क्रोध कर रहे हैं ? मुझे अतीत, वर्तमान तथा भविष्य -- तीनों का ज्ञान है। मान लीजिए, आपका रहस्य तो मुझे
१. अभिदोसतो
किं सुत्वा
इङ्घ तं
२. पञ्ञो
एसि,
मनो ते । भूरिपञ्ञ,
सुणोम ब्र ूहिमेतं ॥ ७२ ॥
किमवोच
वचनं बज्भो
यदि ते मन्तयितं जनिन्द भरियाय
होतो गुयहं पातुकतं सुतं
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इदान
किमासंकते
महोस धोति,
दोसं ।
असंसि
ममेतं ॥ ७३ ॥
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