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तत्व : आचार: कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २८७
राजा की देह से पसीना छूटने लगा। वह शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसका चित्त अशान्त हो गया। महारानी उदुम्बरा उसकी बगल में उसी शय्या पर लेटी थी। उसे राजा की विषण्ण मनःस्थिति का ज्ञान हुआ तो वह बोली-“देव ! क्या दासी से कोई अपराध हो गया या देव के शोकान्वित होने का और कोई हेतु है ?" उसने अपना भाव और स्पष्ट करते हुए कहा--"राज शिरोमणे ! तुम विमन-उन्मनस्क क्यों हो? हे नरेन्द्र ! तुम्हारे वचन क्यों नहीं सुनाई देते ? तुम खामोश क्यों हो? तुम किस बात से चिन्तातुर हो? देव ! क्या मुझसे कोई अपराध बन पड़ा?"१
। उत्तर में राजा बोला--"महारानी ? तुमसे कोई अपराध नहीं बन पड़ा है । मैंने प्रखर प्रज्ञाशील महौषध पण्डित के वध का आदेश दे दिया है। यही सोचकर मैं दु:खी हैं।"२
उदुम्बरा पर यह सुनते ही मानो शोक का पहाड़ टूट पड़ा। उसने विचार कियाराजा को पहले आश्वस्त करूं, वह सो जाए तो फिर अपने छोटे भाई को सन्देश भेजूं । उदुम्बरा राजा को सम्बोधित कर बोली-'महाराज ! महौषध को आपने बहुत वैभव दिया। उसे सेनापति का उच्च पद दिया। क्या वह अब आपके साथ शत्रुभाव रखने लगा ? शत्रु को कभी छोटा नहीं मानना चाहिए। उसे मार्ग से हटा देने में ही कल्याण है; इसलिए आप अब किसी प्रकार की चिन्ता न करें।" रानी द्वारा दिया गया आश्वासन सुनकर राजा का क्षोभ हलका हुआ। उसे निद्रा आ गई।
महारानी उठी। अपने कमरे में गई । वहाँ जाकर महौषध को सम्बोधित कर एक पत्र लिखा- "महौषध ! चारों पण्डितों ने राजा के मन में तुम्हारे प्रति अन्यथा भाव, विद्वेष उत्पन्न कर दिया है । राजा ने कल प्रातः द्वार पर तुम्हारा वध करने का आदेश दे दिया है; इसलिए अच्छा है, कल सवेरे तुम राजकुल में मत आओ, यदि आओ तो नगर में भलीभाँति अपनी सुरक्षा-व्यवस्था कर आना।" उदुम्बरा ने यह पत्र एक मोदक के भीतर रखा, मोदक बाँधा, उस पर धागा लपेटा। उसे नये बर्तन में रखा। उस पर सुगन्धि छिड़की। उस पर मुहर लगाई। उसे अपनी दासी को दिया और कहा-"यह मोदक ले जाओ, मेरे छोटे भाई महौषध को दे दो।" दासी ने अपनी स्वामिनी के आदेशानुरूप किया। उसे कहीं भी रोकटोक नहीं हुई; क्योंकि राजा से उदुम्बरा को पहले से ही यह वरदान प्राप्त था कि वह दिन में, रात में जब चाहे, अपने छोटे भाई महौषध को मिठाई भेज सकती है। महौषध ने दासी के हाथ से मोदक लिया और उसे वहाँ से विदा किया। दासी वापस अन्तःपुर में पहुँची, अपनी स्वामिनी को सूचित किया कि वह मोदक महौषध को दे आई है। रानी ने इससे अपने मन में निश्चिन्तता मानी और वह शय्या पर जाकर राजा की बगल में लेट गई।
१. किन्नु त्वं विमनो राजसेट्ठ। दिपदिन्द | वचनं सुणोम नेतं । किं चिन्त्यमानो दुम्मनोसि,
नूनं देव ! अपराधो अस्थि मय्हं ॥७०॥ २. पञो वञ्झो महोसधोति,
आणत्तो वै वधाय भूरिपो । तं चिन्तयन्तो दुम्मनोस्मि, नहि देवि ! अपराधो अस्थि तुय्हं ॥७१॥
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