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________________ २८६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ मेरा अनुज ही जानता है, अन्य कोई नहीं जानता। इसी कारण मैंने कहा था कि गुप्त बात भाई को ही बतानी चाहिए।" काविन्द पण्डित ने अपना रहस्य उद्घाटित करते हुए कहा-"प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में उपोसथ के दिन नरदेव नामक यक्ष की मेरे में छाया आती है। छाया आने पर मैं विक्षिप्त कुत्ते की ज्यों चिल्लाने लगता है। मैंने यह रहस्य अपने पुत्र को बताया। जब वह जान लेता है, मुझे यक्ष की छाया आ गई है तो वह मुझे घर में बाँध देता है और लिटा देता है, दरवाजा बन्द कर देता है । मेरे चिल्लाने चीखने की आवाज लोग न सुन पाएं, इस हेतु वह द्वार पर नृत्य-गान का आयोजन कराता है। इसी से मैंने कहा कि गोपनीय बात पुत्र को बतानी चाहिए।" ___ अब देविन्द की बारी आई। तीनों ने उससे पूछा । उसने अपना रहस्य इस प्रकार प्रकट किया-"जिस समय मैं राजा की मणियाँ रगड़कर, घिसकर चमकीली बना रहा था, तब मैंने शक्र द्वारा कुशराज (विदेहराज के पितामह) को प्रदत्त श्रीसम्पन्न मंगल-मणि चुरा ली, अपने घर ले आया और माता को दिया। माता न उसे संजोकर रखा। जब मैं राज भवन में जाता हूँ, तब वह मुझे मंगल-मणि दे देती है। मंगल मणि की यह विशेषता है, उसे धारण करने वाले के आगे-आगे श्री चलती है । वह श्रीसम्पन्न तथा प्रभावक बना रहता है। मैं उस मणि के साथ राजभवन में प्रविष्ट होता हूँ । उसी का प्रभाव है, राजा तुम लोगों से वार्तालाप न कर पहले मुझसे ही वार्तालाप करता है । वह मुझे हाथ-खर्च के लिए कभी आठ, कभी सोलह, कभी बत्तीस, कभी चौंसठ काषार्पण देता है। यदि राजा को पता चल जाए कि यह अपने पास मणि छिपाये है तो मुझे वह मृत्यु-दण्ड दिये बिना न छोड़े; अतएव मैंने कहा कि रहस्य अपनी माता के ही समक्ष प्रकट करना चाहिए।" महौषध चावल के ढेर के नीचे बैठा यह सब सुन रहा था। उसने सब की गुप्त बातें भलीभाँति जान लीं। उदर को चीर कर अन्न बाहर निकालने की ज्यों उन्होंने अपनी-अपनी गोपनीय बातें बाहर निकाल दीं। फिर वे यह कहते हुए अपने स्थान से उठे कि आलस्य न करें, हम सब को सवेरे ही यहाँ चले आना है, महौषध का वध करना है। वे अपने-अपने स्थान को चले गये । तब महौषध के आदमी वहाँ आये, चावलों को हटाया, बोधिसत्त्व को निकाला और उसे साथ लिये चले गये। महौषध अपने घर आया, स्नान किया, वस्त्र पहने, आभूषण धारण किये, उत्तमस्वादिष्ट, स्वास्थ्यकर भोजन किया। उसे आशा थी, आज उसकी बहिन उदुम्बरा देवी की ओर से अवश्य ही कोई संदेश आयेगा। इसलिए उसने द्वार पर एक आदमी को बिठा दिया और उससे कहा-"राजभवन से यहाँ जो भी आए, उसे शीघ्र मेरे पास पहुँचा देना।" यह कहकर वह अपने बिछौने पर लेट गया। राजा भी उस समय अपने महल में बिस्तार पर लेटा था। वह महौषध पण्डित के गुणों का स्मरण कर शोकान्वित हो रहा था। वह सोचने लगा-महौषध सात वर्ष पर्यन्त मेरी सेवा में रहा, उसने कभी मेरा कोई अहित नहीं किया। वह नहीं होता तो छत्रवासिनी देवी द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के समय मेरे प्राण भी नहीं बचते । मुझसे बड़ा अनुचित हुआ, जो मैंने उन पण्डितों का, जो वास्तव में मेरे अहितैषी हैं, शत्रु हैं, भरोसा किया, उन्हें तलवार दी और कहा कि महौषध पण्डित की, जो अनुपम प्रज्ञाशाली है, हत्या कर डालो । अब मैं कल उसे सदा के लिए खो दूंगा। वैसे प्राज्ञ पुरुष जगत् में कहाँ पड़े हैं। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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