________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग —— चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २८५
पण्डितों ने कहा- “राजन् ! जैसी आपकी आज्ञा । आप भयभीत न हों । हम महौषध का वध कर डालेंगे ।" वे वहाँ से निकले तथा यह कहते हुए कि शत्रु हमारे कब्जे में है, चावलों के ढेर पर बैठ गये ।
सेनक अपने साथी पण्डितों से बोला- “महौषध की हत्या कौन करेगा ?" वे बोले – “आचार्य ! यह भार आप पर । आप ही करें।"
सेनक ने अपने साथी पण्डितों से कहा -- "राजा के समक्ष जब रहस्य प्रकट करने का प्रसंग चल रहा था, तो तुम लोगों ने भिन्न-भिन्न रूप में कहा था कि उसे अमुक-अमुक के समक्ष प्रकट करना चाहिए। तुम लोगों ने ऐसा किस आधार पर कहा ? कभी ऐसा किया, कहीं देखा या किसी से सुना ?"
वे बोले – 'आचार्य ! ठीक है, कहेंगे। पहले आप बतलाएँ, आपने जो यह कहा कि रहस्य मित्र के समक्ष प्रकट करना चाहिए, उसकी क्या पृष्ठभूमि है ?"
सेनक - "मुझे भय है, यदि राजा इस गोपनीय बात को जान ले तो मुझे अपने प्राणों से हाथ धोने पड़ें।"
पण्डित - "आचार्य ! भयभीत न हों । यहाँ ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो आपकी गुप्त बात कहीं कहे । "
सेन ने विनोद की मुद्रा में चावलों के ढेर को कुरेदते हुए कहा – “इस ढेर के नीचे कहीं गाथापतिका बच्चा महौषध तो नहीं है ?"
पण्डित - "आचार्य ! महौषध बहुत ऐश्वर्यशाली है । वह ऐसे स्थानों में प्रविष्ट नहीं होता । वह अपने घर मस्ती में पड़ा होगा । आप बतलाएँ ।'
सेनक ने अपनी गोपनीय बात प्रकट करते हुए कहा - "इस नगर में एक वेश्या थी, अमुक नाम था, जानते हो ?”
पण्डित – "हां, आचार्य ! जानते हैं ।"
"3
सेनक -- “अब वह दृष्टिगोचर होती है ?
पण्डित - "आचार्य ! अब तो वह नई दिखाई देती ।"
सेनक- "मैंने शाल वन में उसके साथ कुकर्म किया। फिर उसके आभूषणों को हथियाने का मन में लोभ उत्पन्न हुआ । मैंने उसकी हत्या कर दी । उसी के कपड़ों में आभूषणों की गठरी बाँधी । अपने घर लाया । अपने घर की अमुक मंजिल पर, अमुक कमरे में, अमुक खूंटी पर वह गठरी टांग दी। मुझे हिम्मत नहीं होती, उन्हें व्यवहार में लूं । यह राज्य के कानून के अनुसार भारी अपराध है । फिर भी मैंने अपने एक मित्र के समक्ष उसे प्रकट कर दिया । उसने आज तक किसी को नहीं कहा; इसलिए मैंने उक्त प्रसंग पर कहा था कि मित्र के सामने अपना रहस्य प्रकट कर देना चाहिए।"
चावलों के ढेर के नीचे विद्यमान महौषध ने यह सब सुना, ध्यान में रख लिया । पुक्कुस ने अपना रहस्य इस प्रकार उद्घाटित किया – “मेरी जंघा पर कुष्ठ है । मेरा अनुज - - कनिष्ठ भ्राता सवेरे जल्दी उठता है । किसी को जरा भी पता नहीं होने देता, घाव को धोता है, उस पर दवा लगाता है, फिर रूई के साथ उस पर पट्टी बाँध देता है । राजा के मन में मेरे प्रति बड़ा स्नेह है । जब मैं वहाँ जाता हूँ तो वह मुझे अपने पास बुलाता है, मेरी जंघा पर अपना मस्तक टिका कर लेट जाता है, विश्राम करता है । यदि उसे मेरी जंघा पर कुष्ठ होने का पता चल जाए तो वह मुझे मारे बिना न छोड़े। इस बात को केवल
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org