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________________ २८४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ न हो जाए, धैर्यशील पुरुष का कर्तव्य है कि वह रहस्य को अप्रकट रखे। जब कार्य सिद्ध हो जाए, तब वह उसे प्रसन्नतापूर्वक आख्यात करे।'' राजा ने जब महौषध के मुख से यह सुना तो वह बड़ा नाराज हुआ। राजा और सेनक परस्पर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। महौषध को उनकी भावभंगी से यह समझते देर नहीं लगी कि इन चारों पण्डितों का पहले से ही कोई षड्यन्त्र है। उन्होंने राजा को भ्रान्त कर दिया है। यह प्रश्न केवल परीक्षा हेतु पूछा गया हो, ऐसा लगता है। यह वार्तालाप चलते-चलते सूरज छिप गया। दीए जल गये । महौषध ने विचार किया, राजाओं के अनेक महत्त्वपूर्ण, आवश्यक कार्य होते हैं। अभी भी कोई कार्य हो; अतः मुझे यहाँ से शीघ्र विदा हो जाना चाहिए। वह अपने आसन से उठा, राजा को नमस्कार किया और बाहर निकला । जाते हुए वह सोचने लगा कि इनमें से एक ने कहा था कि अपना रहस्य मित्र के समक्ष प्रकट कर देना चाहिए । एक ने कहा था कि अपनी गुप्त बात भाई को बताने में कोई नुकसान नहीं है। एक का कहना था कि पुत्र को तथा एक का कहना था कि माता को गुप्त बात कह देनी चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है, जीवन में कभी उन्होंने वैसा किया ही होगा। अक्सर यह होता है, मनुष्य जैसा करता है, देखता है, अनुभव करता है, वह वैसा ही कहता है । इसलिए इनके साथ भी यह बात लागू हो, ऐसा स्वाभाविक है। मैं आज ही इसकी खोज करूं । सेनक आदि चारों पण्डित राज-दरबार से निकल कर राजभवन के दरवाजे के बाहर एक चावलों के ढेर पर अक्सर बैठ जाया करते थे। बैठकर अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों पर चिन्तन करते थे। महौषध ने विचार किया-मैं चावलों के ढेर के नीचे छिप जाऊं तो इनकी बातें सुन सकता है। उसने वह ढेर वहाँ से उठवाया, नीचे भूमितल पर बिछौना लगवाया, वहाँ बैठे रहा जा सके, ऐसी व्यवस्था करवा ली। उस पर बैठ गया, अपने आदमियों से कहा- “वे चारों पण्डित जब वार्तालाप कर यहाँ से चले जाएं तो तुम लोग यहाँ आकर मुझे चावलों के नीचे से निकाल लेना।" यह कहकर उसने अपने ऊपर चावल डलवा लिये । वह चावलों के नीचे बिलकुल छिप गया। सेनक ने राजा से निवेदित किया-"महाराज ! आप हम पर भरोसा नहीं करते थे। अब स्वयं देख लीजिए, कैसी स्थिति है, महौषध आपका कितना अहित-चिन्तक है । राजा ने उन भेद डालने वाले पण्डितों का विश्वास कर लिया। वह बिना विचारे झूठ-मूठ भयक्रान्त हो गया । उसने पूछा- 'सेनक पण्डित ! अब क्या किया जाए ?" सेनक बोला- अविलम्ब महौषध का वध करवा दिया जाए, यही उचित है।" राजा ने कहा-"सेनक ! तुम्हारे सिवाय और कौन मेरा शुभ चिन्तक है। तुम अपने विश्वस्त आदमियों को साथ लेकर कल सवेरे दरवाजे में खड़े रहो । महौषध ज्योंही मेरे यहाँ आते वक्त वहां से निकले तो तलवार द्वारा उसका मस्तक धड़ से अलग कर दो।" यह कहकर राजा ने अपनी तलवार सेनक को दी। २. गुह्यस्स हि गुह्यमेव साधु, नहि गुह्यस्स पसत्थमाविकम्म। अनिप्फादाय सहेय्य धीरो, निप्फन्नत्थो यथासुखं भणेय्य ॥६६॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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