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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २८३ .. राजा को भी हमने अपने साथ सम्मिलित कर लिया है, यह सोचकर सेनक बड़ा परितुष्ट हुआ। उसने स्वयं का अभिमत प्रकट करते हुए कहा-जो कष्टगत होने परदुःख पड़ने पर, आतुर होने पर घबराहट के समय शरण लेने योग्य होता है, जीवन-यात्रा में सहायक होता है, आधार होता है, निन्दायुक्त या प्रशसायुक्त अपना रहस्य ऐसे मित्र के समक्ष प्रकट करना चाहिए।" फिर राजा ने पुक्कुस पण्डित से पूछा-"पुक्कुस ! तुम्हें इस सम्बन्ध में कैसा लगता है, तुम्हारा क्या विचार है ? रहस्य किसे बताना चाहिए ?" पुक्कुस ने कहा--"बड़ा भाई हो, मंझला भाई हो या छोटा भाई हो, यदि वह शील समाहित हो–संयत हो, स्थित हो—स्थिरचेता हो तो निन्दित या प्रशंसित अपना रहस्य वैसे भाई को बता देना चाहिए।" फिर राजा ने काविन्द से जिज्ञासा की। काविन्द ने कहा-"जो अपने मन के अनुरूप चलने वाला हो-आज्ञानुवर्ती हो, वंश-परम्परा का निर्वाहक हो, उत्कृष्ट प्रज्ञायुक्त हो, ऐसे पुत्र के समक्ष निन्दनीय या प्रशंसनीय जैसा भी अपना रहस्य प्रकट कर देना चाहिए।"3 तत्पश्चात् राजा ने देविन्द से पूछा । देविन्द ने बताया-"नरेन्द्र ! जो माता अपने पुत्र का बड़ी उत्कण्ठा और प्यार के साथ लालन-पालन करती है, उसको निन्दास्पद या प्रशंसास्पद कैसा भी रहस्य बता देना चाहिए।"४ इस प्रकार चारों पण्डितों को पूछ लेने के अनन्तर राजा ने महौषध पण्डित से पूछा-. "पंडित ! इस सम्बन्ध में तुम क्या सोचते हो?" महौषध ने कहा-राजन् ! "गोपनीय बात का गुप्त रहना ही अच्छा है। गोपनीय का आविष्करण -प्रकटीकरण प्रशस्त नहीं होता । जब तक कार्य निष्पन्न न हो जा न न हो जाए, सिद्ध १. यो किच्छगतस्स आतुरस्स, सरणं होति गती परायणञ्च । निन्दियमत्थं पसंसियं वा, सखिनो वाविक रेय्य गुय्हमत्थं ॥६शा २. जेट्ठो अथ मज्झिमो कणिट्ठो, सो चे सील समाहितो ठितत्तो। निन्दिय मत्थं पसंसियं वा, भातु वाविकरेय्य गुह्यमत्थं ॥६६॥ ३. यो वे हदयस्स पद्धगु, अनुजातो पितरं अनोमपओ। निन्दियमत्थं पसंसियं वा, पुत्तस्सा वाविकरेय्य गुह्यमत्थं ॥६७।। ४. माता दिपदा जनिन्द सेठ्ठ ! यो तं पोसेति छन्दसा पियन, निन्दियमत्थं पसंसियं वा मातुयाविकरेय्य गुय्हमत्थं ॥६८॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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