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________________ २८२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ महौषध पण्डित के मुंह से यह सुनकर वे चारों पण्डित बड़े प्रसन्न हुए तथा उन्होंने मन-ही-मन विचार किया, महौषध को अब हम पराभूत कर डालेंगे। वे राजा के पास गये और उससे निवेदन किया-"महौषध के मन में आपके प्रति शत्रुभाव है।" राजा ने कहा- “मैं तुम लोगों का विश्वास नहीं करता। महौषध मेरा शत्रु नहीं हो सकता।" वे बोले- "महाराज ! हमारे कथन पर यदि आपको विश्वास न हो तो आप महीषध को ही बुलाकर पूछ लें कि पण्डित ! अपना रहस्य किसके आगे प्रकट करना चाहिए? यदि आपका शत्र नहीं होगा तो कहेगा कि अपना रहस्य अमुक व्यक्ति के समक्ष प्रकट करना चाहिए। यदि वह आपका शत्रु होगा तो कहेगा, अपना रहस्य किसी के समक्ष उद्घाटित नहीं करना चाहिए, मनः-कामना परिपूर्ण होने के पश्चात् अपना रहस्य प्रकट करना चाहिए। यदि ऐसा हो, तो आप हमारी बात पर 'वश्वास कीजियेगा, शंकारहित हो जाइयेगा।" एक दिन का प्रसंग है, पाँचों पण्डित राजा की सेवा में आये, बैठे। राजा ने कहा"मेरे मन में आज एक प्रश्न उठा है, उसे सुनो--चाहे निन्दा योग्य हो, प्रशंसायोग्य हो, गुह्य अर्थ-रहस्य किसके समक्ष प्रकट करना चाहिए ?"१ राजा का यह कथन सुनकर सेनक ने सोचा-अच्छा हो, राजा को भी हम अपने इस घेरे में ले लें। उसे भी इस प्रश्नोत्तर-विवाद में सम्मिलित कर लें। उसने राजा को सम्बोधित कर कहा—'भूपते ! आप हमारे भर्ता हैं - स्वामी हैं । आप ही हमारे भारसह हैं-हमारे पालक, पोषक हैं। पहले आप ही इसका आविष्कार करें-इस सम्बन अभिमत प्रकट करें। आपकी अभिलाषा तथा अभिरुचि का विचार कर हम पाँचों धैर्यशील पण्डित अपने-अपने उदगार प्रकट करेंगे।"२ राजा अपनी भार्या में अत्यन्त आसक्त था, रागाभिभूत था। उसने कहा- 'जो शीलवती हो-पवित्र आचरणयुक्त हो अनन्यध्येया-पति के अतिरिक्त जिसके मन में किसी ओर का ध्यान ही न हो, जो पति की वशवतिनी हो—समर्पिता हो, मन के अनुकूल चलने वाली हो, ऐसी भार्या के समक्ष निन्दा-योग्य या प्रशंसा-योग्य अपना रहस्य प्रकट कर देना चाहिए।" १. पञ्च पण्डिता समागता पहो में परिभाति तं सुणाथ। निन्दियमत्थं पसंसियं वा, कस्सेवाविकरेय्य गुय्हमत्थं ॥६२।। २. त्वं नो आविकरोहि भूमिपाल । भत्ता भारसहो तुवं वदे । तब छन्दञ्च रुचिञ्च सम्मसित्वा, अथ वक्खन्त्ति जनिन्द ! पञ्च धीरा ।।६३॥ ३. या सीलवती अनअधेय्या, भत्तुच्छन्दवसानुगा मना पा। निन्दियमत्थं पसंसियं वा, भरियायाविकरेय्य गूय्हमत्थं ॥६४॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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