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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २८१ - बोधिसत्त्व ने कहा-"राजन् ! अब चौथा प्रश्न पूछे।। तब राजा ने पूछा-"जो खाद्य-पदार्थ, पेय-पदार्थ, वस्त्र, आस्तरण एवं आसन आदि ले जाते हैं, अनेक बार ले जाते हैं । वे प्रिय लगते हैं। ऐसा किन्हें समझते हो?" बोधिसत्त्व ने कहा---''इस प्रश्न का सम्बन्ध धर्मनिष्ठ श्रमण-ब्राह्मणों से है । जो श्रद्धालु, ६र्मानुरागी पुरुष इस लोक में तथा परलोक में आस्था रखते हैं, दान देने की भावना रखते हैं, श्रमण-ब्राह्मण ऐसे पुरुषों के यहाँ से खाने-पीने के पदार्थ, वस्त्र, आस्तरण, आसन आदि अपेक्षित वस्तुएँ ले जाते हैं, खाते हैं, पीते हैं, उपयोग में लेते हैं। उन्हें वैसा करते देख श्रद्धावान् पुरुष उनको और अधिक चाहते हैं, उनमें और अधिक धर्मानुराग जागरित होता है, उनकी अभिलाषा होती है, वे श्रमण-ब्राह्मण पुनः-पुनः उनके यहाँ आएं, उन्हें दान देने का सुअवसर प्रदान कराएं। इस प्रकार वे उन्हें और अधिक प्रिय लगते हैं।" चौथे प्रश्न का उत्तर सुनकर छत्रवासिनी देवी प्रसन्न हुई। उसने बोधिसत्व की पहले की ज्यों पूजा की, साधुवाद दिया, सप्तविध रत्नों से आपूर्ण मंजूषा बोधिसत्त्व के चरणों में समर्पित की। राजा बहुत हषित हुआ । महौषध को सेनापति के पद पर प्रस्थापित किया। इस प्रकार महौषध का सम्मान, ऐश्वर्य बहुत अभिवद्धित हुआ। षड्यंत्र का दूसरा दौर महौषध के पद, प्रतिष्ठा एवं संपत्ति की वृद्धि देखकर सेनक आदि चारों पण्डितों के मन में ईर्ष्या-भाव जागा । वे कुमन्त्रणा करने लगे- "जैसे भी हो, महौषध का पराभव किया जाए, राजा के मन में उसके प्रति कुभाव उत्पन्न किये जाएं, भेद डाला जाए।" सेनक अपने साथी पण्डितों से बोला-"चिन्ता करने की बात नहीं है। एक उपाय मेरे ध्यान में आया है। हम लोग महोषध के पास चलें और उससे पूछे कि रहस्य किसके टित करना चाहिए? ऐसा अनमान है. वह कहेगा, किसी के समक्ष नहीं। इसी बात को लेकर हम उसके विरुद्ध वातावरण तैयार करेंगे। राजा को गलत समझायेंगे। वह संकट में पड़ जायेगा।" चारों पण्डित महौषध के पास आये तथा बोले-"पण्डित ! हम कुछ पूछने आये हैं।" महौषध ने कहा-"पूछिए।" पण्डितगण-"महौषध ! मनुष्य को कहाँ संप्रतिष्ठ होना चाहिए ?" महौषध-"सत्य में संप्रतिष्ठि होना चाहिए।" पण्डित-"सत्य में संप्रतिष्ठ होकर क्या करना चाहिए?" महौषध-"धनोपार्जन करना चाहिए।" पण्डित-'धन का उपार्जन कर क्या करना चाहिए ?" महौषध-"तन्त्र स्वीकार करना चाहिए।" पण्डित -"तन्त्र स्वीकार कर क्या करना चाहिए ?" महौषध-."अपना रहस्य अन्य के समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए।" १. हरं अन्नञ्च पानञ्च वत्थसेनासनानि च। अझदवत्थुहरा सन्ता ते वे राज पिया हान्ति, कं तेनमभिपस्ससि ॥६॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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