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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड
:३
संदेश लेकर खेत जाने को अथवा दूकान जाने को कहती है । वह मां से कहता है-यदि तुम मुझे कुछ खाने को दो तो जाऊं। मां उसे खाने के लिए कुछ दे देती है। बालक तो होता ही है, वह वस्तु खा लेने पर कहने लगता है—'मां ! तू तो यहाँ घर में शीतल छाया में बैठी रहती है, मुझे कार्य करने हेतु तू धूप में बाहर भेजती है। मैं क्यों जाऊं । वह हाथ मुंह बना कर वहीं रुक जाता है, नहीं जाता।' माता क्रोधित हो जाती है। हाथ में डंडा लेकर उसके पीछे दौड़ती है, कहती है- 'तूने मेरे पास से खाने को भी ले लिया और अब मेरा कार्य करना भी नहीं चाहता।' बालक जल्दी से दौड़ जाता है। माता उसे पकड़ नहीं पाती तो कहने लगती है- 'अरे ! अभागे ! जा, चोर तुम्हें काट-काट कर खण्ड-खण्ड कर दें।' इस प्रकार जैसे मुंह में आता है, यह और भी गालियाँ देती है। अपने मुंह से जो वह निकालती है, उससे बाह्य रूप में यही लगता है कि वह उस बालक का लौटकर वापस घर आना जरा भी नहीं चाहती। बालक दिन भर खेल कूद में लगा रहता है। वह मां की डाँट-फटकार को याद कर घर आने की हिम्मत नहीं करता, अपने रिश्तेदारों के घर चला जाता है। मां उसके आने का इन्तजार करती है। जब वह घर नहीं पहुचता तो वह चिन्तित हो जाती है । वह सोचने लगती है, शायद मेरे द्वारा धमकाये जाने कारण बालक डर गया है। डर के कारण आना नहीं चाहता । शोक से उसके नेत्रों में आँसू भर आते हैं , वह उसे खोजती-खोजती रिश्तेदारों के घर जाती है । वहां अपने पुत्र को देखते ही हर्ष से खिल उठती है, पुत्र का आलिंगन करती है, धुम्बन लेती है, अपने दोनों हाथों से उसे पकड़ स्नेह विह्वल हो कहने लगती है-"पुत्र ! मेरे कथन का भी इतना खयाल करते हो।"
"राजन् ! उपर्युक्त रूप में क्रोध व्यक्त करने के बावजूद मां को उसका पुत्र बहुत प्यारा लगता है।"
यह दूसरे प्रश्न का समाधान था। छत्रवासिनी देवी इस समाधान से बहुत प्रसन्न हुई। उसने पूर्ववत् बोधिसत्व की पूजा की। राजा ने भी उसकी अर्चना की।
बोधिसत्त्व ने कहा--"राजन् ! अब तीसरा प्रश्न पूछे।"
राजा ने तीसरा प्रश्न इस प्रकार पूछा-"जो नहीं हुआ, जो असत्य है, वैसा जिस द्वारा कहा जाता है, जिस द्वारा मिथ्या दोषारोपण किया जाता है, फिर भी वह प्रिय लगता है।"
महौषध ने कहा--"पति-पत्नी संकोच के कारण सबके सामने नहीं मिल पाते, वे जब एकान्त में मिलते हैं तो परस्पर क्रीडा-विनोद करते हुए तुम्हारा मुझसे प्यार नहीं है; तुम्हारा हृदय किसी अन्य से जुड़ा है; आदि अनेक प्रकार से एक-दूसरे पर असत्य आरोप लगाते हैं। वैसा करते हैं, परस्पर प्रियता का अनुभव करते हैं। क्योंकि वहा मिथ्या भाषण और असत्य दोषारोपण में रागोद्रेक का भाव है, भर्त्सना नहीं है; अत: उसमें प्रेम और प्रियता का और अधिक अभिवर्धन पाता है।" ।
"राजन् ! यह तीसरे प्रश्न का समाधान है।"
छत्रवासिनी देवी इस उत्तर से परितुष्ट हुई। बोधिसत्त्व की अर्चा की। राजा ने भी सत्कार-सम्मान किया।
१. अब्भखाति अभूतेन अलीकेन मभिसारये ।
स वै राज पियो होति कं तेन मभिपस्ससि ॥६०।।
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