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________________ २७८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :३ राजा ने उसकी परीक्षा लेने हेतु और कहा-“मनुष्य मृदु-कोनल या दारुणकठोर जिस किसी उपाय से पहले अपना दैन्य-दारिद्र्य दूर करे । तत्पश्चात् धर्म का आचरण करे।" इस पर महौषध ने राजा से कहा-जिस वृक्ष की डाली पर बैठे या सोये, मनुष्य को चाहिए कि वह उस डाली को न काटे । यह मित्र-द्रोह है । मित्र के साथ द्रोह करना, उसका अहित करना पाप है। "राजन् ! जिस वृक्ष पर मनुष्य बैठा हो, जिसके नीचे छाया में सोया हो, उसकी डाली तोड़ने से भी मित्र-द्रोह होता है, फिर आपने तो मेरे पिता को बड़ी वैभवपूर्ण स्थिति में पहुँचाया, मुझ पर भी अत्यधिक अनुग्रह किया, फिर भी मैं यदि आपके साथ दूषित, कलुषित व्यवहार करूं तो वह भारी मित्र-द्रोह होगा।" इस प्रकार उसने राजा के समक्ष हर तरह से अपना मित्र-द्रोह-शून्य भाव व्यक्त किया। फिर राजा को कर्तव्य-बोध देते हुए कहा- "मनुष्य जिससे धर्म समझे, जिससे उसकी शंका, कांक्षा निवृत्त हो, वही उसके लिए शरण-स्थान है । जलगत पुरुष के टिकाव के लिए जैसे द्वीप आधार होता है, उसी प्रकार वह उसके लिए आधार रूप है । प्रज्ञाशील पुरुष को चाहिए कि वह उससे मित्र-भाव बनाये रखे, कभी तोड़े नहीं।"3 बोधिसत्त्व ने रजा को उपदेश देते हुए फिर कहा-"जो गृहस्थ काम-भोग में रत रहता है, आलर य-रत रहता है, वह अच्छा नहीं। जिसने प्रव्रज्या ग्रहण की हो-भिक्षुजीवन स्वीकार किया हो, वह यदि संयम का पालन न करे तो वह अच्छा नहीं। जो राजा किसी की कुछ सुनता नहीं, अविचार-पूर्वक कार्य करता है, वह अच्छा नहीं। जो पण्डित होकर क्रोध करता है, वह अच्छा नहीं । क्षत्रिय को, राजा को चाहिए कि वह सबकी बात सुनकर विचारपूर्वक कार्य करे । वह बिना सुने, बिना सब पक्षों को जाने कार्य न करे। राजन् ! जो औरों की बात सुनता है, विचार पूर्वक कार्य करता है, उसकी सम्पत्ति बढ़ती है, कीति बढ़ती है।"४ १. येन केन चि वण्णेन मुदुना दारुणेन वा । उद्धरे दीनमत्तानं पच्छा धम्म समाचरे ॥५३॥ २. यस्स रुक्खस्स छायाय निसीदेय्य सयेय्य वा। न तस्स साखं भजेय्य मित्तदुष्मो हि पापको ॥५४॥ ३. यस्सा हि धम्म मनुजो विजा , ये चस्य कर्ख विनयन्ति सन्तो। तं हिस्स दीपञ्च परायणञ्च, न तेन मित्तं जरयेथ पो ॥५५।। ४. अलसो गिही कामभोगी न साधु, असञतो पब्ब जितो न साधु । राजा न साधु अनिसम्मकारी, यो पंडितो कोधनो तं न साधु ॥५६॥ निसम्म खत्तियो कयिरा नानिसम्म दिसम्पति । निसम्मकारिनो राज यसो कित्ति च वड्ढति ॥५७।। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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