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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २७७ एक सहस्र मुद्रा तथा उत्तरीय युगल महौषध के हाथ में दिया। कुम्भकार ने जब महौषध का राजा की ओर से अमात्य द्वारा सम्मान किया जाता देखा तो वह यह सोचकर भयभीत हो गया कि उसने महौषध पण्डित जैसे इतने बड़े आदमी से एक साधारण मनुष्य जैसा काम लिया। महौषध ने उसकी भाव-भंगिमा से यह सब भांप लिया। उसने कुम्भकार को आश्वस्त करते हुए कहा--- "महोदय ! तुम भयभीत मत बनो, तुम्हारा मुझ पर बड़ा उपकार है।" महौषध ने कुम्भकार को निश्चिन्त किया और एक हजार मुद्राएँ, जो उसको राजा की ओर से अमात्य ने भेंट की थीं, दे दी। वह अपने मिट्टी से लिपे शरीर से ही रथ मे बैठ गया और अमात्य के साथ चल पड़ा। अमात्य ने राजा को सूचित किया कि मैं महौषध पण्डित को ले आया है। राजा ने जिज्ञासित किया-''तुमने पण्डित को कहाँ देखा।" अमात्य बोला-“राजन् ! मैं उसे ढूंढते. ढूंढते दक्षिण यवमज्भक ग्राम में पहुँचा। मैंने वहाँ उसको कुम्भकार के कार्य में सहायता कर आजीविका चलाते देखा । जब मैंने उसे कहा कि महाराज ने तुमको बुलाया है तो वह बिना नहाये ही मिट्टी-लिपे शरीर से मेरे साथ हो गया।" ___ राजा ने जब अमात्य से यह सुना तो विचार किया—महौषध का मेरे प्रति शत्रुभाव होता तो वह अन्यत्र जाकर इस रूप में नहीं रहता, जिस रूप में रहा । मेरे प्रति उसका कोई शत्रु-भाव नहीं है। उसने अमात्य को आदेश दिया कि महौषध पण्डित को कहो, वह अपने घर जाए, स्नान करे, वस्त्र एवं आभूषण धारण करे, फिर मेरे पास आए। महौषध को यह बतलाया गया। तदनुसार वह अपने घर आया। राजा ने जैसा आदेश दिया था, उसने वैसा ही किया। वह राजभवन में आया। भीतर प्रविष्ट होने की आज्ञा प्राप्त होने पर राजा के समक्ष उपस्थित हुआ, राजा को प्रमाण किया तथा एक तरफ खड़ा हो गया । राजा ने उसे कुशल-समाचार पूछे। फिर उसकी परीक्षा लेने हेतु एक प्रश्न उपस्थित किया-'कुछ लोग प्राप्त सुख में सन्तोष का अनुभव करते हुए पाप नहीं करते । कुछ लोग निन्दा के डर से पार नहीं करते । तुम सामर्थ्यशाली हो, बहुत विचारशील -- बुद्धिशील पुरुष हो, तुमने मुझे दुःखित क्यों नहीं किया—मेरे द्वारा किये गये अनुचित व्यवहार का प्रतिशोध लेने का भाव तुम्हारे मन में क्यों नहीं आया !"१ महौषध ने उत्तर देते हुए कहा-पण्डित-जन अपने सुख के लिए पाप-कर्मों का आचरण नहीं करते । दुःख से संस्कृष्ट होकर-दुःख आ जाने पर भी, संपत्ति के चले जाने पर भी महत्त्वाकांक्षावश और द्वेषवश धर्म का परित्याग नही करते।" १. सुखी हि एके न करेन्ति पापं, अवण्णसंसरगमया पुनेके । पहू समानो विपुलत्थचिन्ती किं कारणं मे न करोसि दुक्खं ॥५१॥ २. न पण्डिता अन्तसुखस्स, पापानि कम्मानि समाचरन्ति । दुक्खेन फुट्ठा खलितत्ताणि सन्ता, दा च दोसा च जहन्ति ॥५२॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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