SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :३ महौषध की अमात्य पर दृष्टि पड़ी। उसे समझते देर नहीं लगी की राजा को मेरी आवश्यकता पड़ी है; इसलिए मुझे लेने अमात्य को भेजा है। उसके मन में अभिनव आशा का संचार हुआ-मैं पहले की ज्यों एश्वर्यशाली हो जाऊंगा, अमरा देवी के हाथ से पके हुए उत्तम व्यंजन, पकवान आदि खाऊंगा। हाथ में दाल मिले जौ के भात का जो ग्रास था, उसने उसे छोड़ दिया । मुंह धोया, तभी अमात्य उसके समीप पहुँच गया। महौषध ने जैसी कल्पना की थी, वैसा ही उसने अपने आने का हेतु बनाया। वह अमात्य सेनक पण्डित का पक्षधर था। उसने महौषध के मन पर आघात पहुँचाते हुए कहा- “महाप्राज्ञ महौषध ! तुम्हारी सम्पत्ति, धृति तथा बुद्धि तुम्हारे दुर्भाग्य के समय तुम्हारी जरा भी सहायक नहीं हो सकी। यही कारण है, तुम यहाँथोड़ी-थोड़ी दाल के साथ जौ के भात खा रहे हो।" महौषध ने यह सुनकर उससे कहा-"मूर्ख ! तुम क्या मुझ पर ताना कस रहे हो। मैं अपने बुद्धि-बल से अपने वैभव को पुनः प्राप्त करने की कामना से ऐसा कर रहा हूँ। उसने आगे कहा-“मैं दुःख द्वारा सुख अनुभव करता हुआ सुख-प्राप्ति के प्रयत्न में हूँ। अनुकूल-प्रतिकूल समय का विचार कर अपनी इच्छा से अपने को छिपाये हूँ। अपने वैभव का द्वा द्वार पूनः उद्घाटित करने की अभिलाषा लिये मैं जौ के भात से अपने आपको परितुष्ट मानता है। प्रयत्न करने का जब समुचित काल होगा, मैं अपने बुद्धि-बल द्वारा अपना लक्ष्य पूरा कर सिंह के सदृश जम्भाई लूंगा-मस्ती का भाव प्रदर्शित करूंगा । तुम मुझे पुनः समृद्धि-संपत्ति से समायुक्त देखागे ।"२ - अमात्य बोला- पण्डित ! समाचार यह है, श्वेत छत्र में निवास करने वाली देवी ने राजा से प्रश्न पूछे । राजा ने चारों पण्डितों से उत्तर पूछा । किसी को उत्तर नहीं आया; अतएव राजा ने मुझे तुम्हें लाने भेजा है।" महौषध ने कहा-“यह तो प्रज्ञाशीलता के प्रभाव का प्रत्यक्ष परिचय है। जिस स्थिति को लेकर तुम आये हो, उसमें ऐश्वर्यशाली सहायक नहीं हो सकता। उसमें तो प्रज्ञाशीलता का ही अवलम्बन लेना होता है।" __ अमात्य को राजा का आदेश था कि महौषध पण्डित जहाँ भी दिखाई दे, वहीं से उसे स्नान करवाकर, उत्तम वस्त्र पहना कर लाओ; अतः अमात्य ने राजा द्वारा दी गई १. सच्चं किर त्वमपि भूरि पओ, या तादिसी सिरी धिती मुती च । न तायते भाववसूपनीतं, यो यवकं भूञ्जसि अप्पसूयं ॥४७।। २. सुखं दुक्खन पारपाचयन्ता, कालाकालं विचिनं छन्नछन्नो। अत्थस्स द्वारानि अवापूरन्तो तेनाहं तुस्सामि यवोदनेन ॥४६॥ कालञ्च जत्वा अभिजीहनाम, मन्तेहि अत्थं परिपाचयित्वा । विजम्हिस्सं सीहविज म्हितानि, तायिद्धया दक्खसि मं पुनरपि ॥५०।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy