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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २७३
राजा बोला-"मंगवाओ-लाने के लिए कहो, धारण करूंगा।"
खोज करने पर चूड़ामणि नहीं मिली। स्वर्णमाला, कम्बल तथा स्वर्ण-पादुका भी नहीं मिली, राजा बड़ा विस्मित हुआ।
वे चारों पण्डित बोले-"महाराज ! विस्मय क्या करते हैं ? आपकी ये चारों वस्तुएँ महौषध पण्डित के यहाँ हैं, वह उन्हें खुद प्रयोग में लेता है राजन् ! आप नहीं जानते, वह चोर है, आपका शत्रु है।"
चारों पण्डितों से यह सुनकर राजा का मन खिन्न हुआ।
महौषध पण्डित को अपने गुप्तचरों द्वारा यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ। उसने सोचाराजा से भेंट करूँ, पता करूँ, स्थिति को सम्भालूं । वह राजा के पास आया। राजा पहले से ही अपना सन्तुलन खोये बैठा था । उसे देखते ही क्रुद्ध हो गया और बोला- "मुझे नहीं मालूम था कि तम यहाँ आकर ऐसे काम करोगे।" महौषध पण्डित को राजा ने अपने पास आने तक नहीं दिया। महौषध पण्डित राजा को क्रोधाविष्ट जान वपास अपने घर लौट आया। राजा ने आदेश निकलवाया कि महौषध पण्डित को बन्दी बना लिया जाए। महौषध को अपने गुप्तचरों से इस बात का पता चल गया। उसने नगर छोड़ देने का निर्णय किया। अपने आगे के कार्यक्रम के सम्बन्ध में अमरा देवी को उसने आवश्यक संकेत दिये, वेश बदला. नगर से निकला, दक्षिण-यवमझक.गाँव में गया। वहाँ अपना यथार्थ परिचय न देकर एक कुम्भकार के घर में बर्तन बनाने के काम में लग गया।
सारे नगर में कोलाहल मच गया कि पण्डित नगर छोड़ गया। सेनक आदि चारों पण्डितों ने कहना शुरू किया-"नगरवासी क्यों चिन्ता करते हैं ? महौषध चल गया तो क्या हो गया ? क्या हम चारों पण्डित नहीं हैं ?"
उन चारों पण्डितों के मन में पाप पैदा हो गया। वे चारों अमरा देवी की ओर आकृष्ट हए । अमरा देवी को प्रसन्न करने हेतु उन चारों ने एक-दूसरे को अवगत कराये बिना अपनी
ओर से अलग-अलग उपहार भेजे। अमरा देवी ने चारों द्वारा भेजे गये उपहार स्वीकार कर लिये और उनको कहलवा दिया कि अमुक-अमुक समय उसके पास आएँ, उससे भेंट करें। वे दिये गए समय के अनुसार अलग-अलग अमरा देवी के पास आये । अमरा देवी ने चतुराई से उनके सिर मुंडवा दिये और ऐसी युक्ति बरती कि उनको विष्ठा-कूपों में शरण लेने को बाध्य किया। इस प्रकार चारों पण्डित बहुत दु:खित हुए।
__ तत्पश्चात् अमरा देवी ने चारों रत्न लिये । वह राजभवन में गई। राजा को अपने आगमन की सूचना करवाई। राजा ने उसको भीतर बुलवाया। उसने राजा को प्रणाम किया और बोली-'राजन् ! मेरा स्वामी महौषध पण्डित कदापि चोर नहीं है । वास्तव में चोर तो स्वयं ये चारों पण्डित हैं। सेनक ने चूड़ामणि की चोरी की है, पुक्कुस ने सोने की माला चुराई है, काविन्द ने बहुमूल्य कम्बल चुराया है तथा देविन्द ने सोने के खड़ाऊ चुराये हैं। अमुक महीने अमुक-अमुक दिन अमुक-अमुक दासी की अमुक-अमुक पुत्रियों के साथ ये हमारे यहाँ भेजे हैं। अमरा देवी ने वे कागज प्रस्तुत किये, जिन पर यह सब उल्लखित था। वे चारों वस्तुएं राजा को सौंप दी तथा उसे कहा- 'आप अपने इन चारों चोरों को सम्भाल लीजिए।"
राजा ने उसी समय उन चारों पण्डितों की खोज करवाई तो वे सिर मुंडे हुए तथ्रा विष्ठा से सने हुए मिले। राजा को जब उनकी कुत्सित एवं जघन्य चेष्टा के सम्बन्ध में ज्ञात
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