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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग–पिनु रातिहमा महा उम्मॅग्ग जातक २७१ आये। महौषध पण्डित उस समय बड़े ठाट-बाट के साथ बैठा था। अमरा ने उसे उस रूप में नहीं देखा था; इसलिए वह उसे नहीं पहचान सकी । उसको विपुल ऐश्वर्य के बीच बैठे देख उसे एक बार हंसी आई, दूसरी बार रोना आया।
महौषध ने उसे एक ही समय में हंसने और रोने का कारण पूछा।
अमरा बोली--"स्वामिन् ! जब मैंने तुम्हारे वैभव की ओर गौर किया तो मैंने सोचा-यह सम्पन्नता, यह वैभव यों ही प्राप्त नहीं हुआ है । पूर्व-जन्म में आचीणे कुशल कर्मों-पुण्य-कर्मों के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ है। कुशल-कर्मों का कितना उत्तम फल है। इस प्रकार मन में प्रसन्नता का भाव उदित हुआ, जो मेरी हँसी के रूप में प्रकट हुआ।
"मेरे रोने का एक दूसरा हेतु है । मैंने तुम्हारे द्वारा किये जाते ऐश्वर्य तथा वैभव के परिभोग की ओर गौर किया तो मुझे लगा धन-वैभव में, जो वस्तुतः पर-पदार्थ है, यह जिस प्रकार अभिरत है, आसक्त है, उसका परिणाम नरक है। इससे मेरे मन में करुणा-भाव उदित हुआ, जो रुदन के रूप में फूटा।"
__ महौषध ने अनुभव किया कि अमरा वास्तव में सुयोग्य है, पवित्र है। वह परितुष्ट हुआ उसने अपने आदमियों से कहा- "जाओ, इसे जहाँ से लाये थे, वहीं छोड़ आओ।" महौषध ने दूसरे दिन पिंजारे का वही वेश बनाया जिस वेश में वह अमरा से उसके गांव के समीप मिला था। वह द्वारपाल के घर गया और अमरा के साथ वहीं रात्रि व्यतीत की। फिर दूसरे दिन वह रनवास में आया तथा उदुम्बरा देवी से सब बात कही।
__ महारानी उदुम्बरा ने राजा को इस वृत्तान्त से अवगत कराया। अमरा को सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित करवाया, एक विशाल रथ में बिठवाकर बड़े आनन्दोल्लास के साथ उसे महौषध के घर बुलवाया, वैवाहिक मंगल-कार्य करवाये। राजा ने महौषध को एक सहस्र मुद्राएं उपहार-स्वरूप भेजीं। पहरेदारों से लेकर सभी नगरवासियों ने महौषध को अपनी-अपनी ओर से उपहार भेजे । अमरा देवी ने राजा द्वारा भेजी गई भेंट के दो भाग किये। एक भाग अपने यहाँ रखा, एक भाग वापस राजा को भेंट-स्वरूप भेजा। उसी प्रकार उसने नगरवासियों से प्राप्त उपहारों को दो-दो भागों में बाँटा । एक-एक अपने पास रखा, एक-एक भाग उनको भेट स्वरूप वापस भेजा। उसने अपने शालीनतापूर्ण व्यवहार से नगरवासियों का मन जीत लिया।
महोषध और अमरा देवी सुखपूर्वक रहने लगे। वे मानो दो देह और एक प्राण थे। इस प्रकार आनन्दपूर्ण जीवन जीता हुआ महौषध राजा के अर्थ--राजशासन, राजस्व, वित्त तथा धर्म-न्याय, कानून-व्यवस्था में निरत रहता। पण्डितों का षड्यन्त्र
एक दिन का प्रसंग है, पुक्कुस, काविन्द तथा देविन्द-तीनों पण्डित सेनक पण्डित के यहाँ आये हुए थे। सेनक से उन्होंने कहा-"गाथापति पुत्र महौषध से हम अभिभूत हैं । हम उसका किसी प्रकार अतिक्रमण नहीं कर सकते । अब एक संकट और हो गया है, वह अपने से भी कहीं अधिक चतुर पत्नी और ले आया है। क्या किया जाए, जिससे उसके तथा राजा के बीच भेद की दरार पड़ जाए।"
तीनों ने कहा-"आचार्य ! आपके समक्ष हम क्या बतलाएँ। आप ही कुछ सोचें."
सेनक ने कहा-"चिंता मत करो, एक उपाय मेरे मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ है । हम लोग महौषध को चोर सिद्ध करें। वह इस प्रकार होगा-मैं किसी प्रकार चतुराई से राजा
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