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________________ २७० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ ज्यों ही उन्हें मुंह में रखा, उसको उनके स्वाद का पता चल गया, जो अप्रिय नहीं था, फिर भी उसने अमरा की परीक्षा लेने की नीयत से कहा-"कल्याणि ! यदि तुम्हें पकाने का ज्ञान नहीं है तो धान को क्यों बिगाड़ा?" यह कहकर उसने ग्रास को थूक दिया तथा खिचड़ी भी जमीन पर गिरा दी। अमरा ने यह देखकर जरा भी क्रोध नहीं किया। वह बोली--"स्वामिन् ! यदि खिचड़ी ठीक नहीं बनी तो पूए खा लीजिए।" उसने पूए परोसे महौषध ने पूए का एक कौर मह में लिया। उसने उसे थूक दिया तथा वैसा ही कहा, जैसा खिचड़ी के विषय में कहा था । अमरा जरा भी ऋद्ध नहीं हई। उसने कहा-"स्वामिन ! यदि पए ठीक नहीं बने तो भात लीजिए।" फिर उसने भात परोसे । महौषध ने भात का एक ग्रास चखकर वैसा ही किया तथा क्रोध का-सा भाव प्रदर्शित किया। और कहा-"यदि तम्हें पकाने का ज्ञान नहीं है तो तुमने चावल क्यों बर्बाद किये।" अब खिचड़ी, पूए तथा भात-इन तीनों को एक साथ मिलाकर मस्तक से लेकर पैरों तक सारे शरीर पर इनको पोत लो और द्वार पर जाकर बैठ जाओ।" अमरा ने इस बात पर जरा भी क्रोध का भाव नहीं दिखाया और कहा-"स्वामिन् ! बहुत अच्छा।" उसने सब वैसा ही दिया, जैसा महौषध ने कहा था। महौषध ने जब यह देखा, वह उसकी विनयशीलता से प्रसन्न हुआ और बोला"कल्याणि ! इधर आओ।" वह उसके पास आई। महौषध नगर में आते समय एक सहस्र मुद्राओं सहित एक वस्त्र लेता आया था। उसने वह वस्त्र थैले से निकाला । उसे अमरा के हाथ में दिया और कहा--"जाओ, स्नान करो, फिर यह वस्त्र धारण करो तथा अपनी सखियों सहित आओ।" महौषध आते समय नगर से जो धन साथ लाया था, वह तथा उसने यहाँ जो अजित किया, वह सारा अमरा के माता-पिता को दे दिया, आर्थिक दृष्टि से उन्हें निश्चिन्त कर दिया। माता-पिता की स्वीकृति से उसने अमरा को अपने साथ ले लिया। उसे साथ लिये वह नगर में आया । वह अमरा की कुछ और परीक्षा करना चाहता था। उसने अमरा को नगर के द्वारपाल के घर में ठहरा दिया, द्वारपाल की पत्नी को सम्भला दिया, समझा दियावह उसकी देखरेख करे। ऐसा कर महौषध अपने घर आ गया। उसने वहाँ अपने विश्वस्त व्यक्तियों को बुलाया, उनको एक सहस्र मुद्राएँ दी और कहा कि तुम द्वारपाल के घर में जाओ । वहाँ मैं एक स्त्री को छोड़कर आया हूँ। इन हजार मुद्राओं का उसको प्रलोभन दो, उसकी परीक्षा करो। महौषध के कथनानुसार वे पुरुष द्वारपाल के घर गये । उन्होंने वैसा ही कहा, जैसा महौषध ने उनको सिखाया था । अमरा ने मुद्राएँ अस्वीकार करते हुए कहा- "क्या मुद्राएँ दिखलाते हो, ये मेरे स्वामी के पैर की मिट्टी के समान भी नहीं हैं।" वे मनुष्य वापस महौषध के पास लौट आये तथा जैसा घटित हुआ, उसे बतलाया। महौषध ने तीन बार इसी प्रकार अपने व्यक्ति भेजे, जिनको अमरा ने पूर्ववत् वापस लौटा दिया। महौषध ने चौथी बार अपने आदमियों से कहा-"उसे हाथ पकड़कर, खींचकर जबर्दस्ती यहाँ ले आओ।" उसके आदमियों ने वैसा ही किया। वे उसे महौषध के पास ले Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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