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________________ २६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ महौषध--"जहाँ एक बार जाकर फिर वापस कभी न लौटा जाए, ऐसा स्थान तो श्मशान होता है । कल्याणि ! ऐसा प्रतीत होता है, तुम्हारे पिता श्मशान के समीप हल चलाते हैं।" अमरा-हां, स्वामिन् ! वे श्मशान के समीपवर्ती भूखण्ड में खेती करते हैं।" महौषध-"कल्याणि ! क्या आज ही आओगी ?" अमरा-“यदि आयेगा तो नहीं आऊंगी, यदि नहीं आयेगा तो आऊंगी।" महौषध-“प्रतीत होता है, तुम्हारा पिता नदी के तट पर-सन्निकटवर्ती भूमि पर हल चलाते हैं । तुम्हारे कथन का आशय मैं यह समझा, पानी आने पर तुम नहीं आओगी, पानी न आने पर तुम आओगी।" अमरा-"स्वामिन् ! ऐसा ही है।" इतना वार्तालाप हो जाने के बाद अमरा ने महौषध से पूछा- "स्वामिन् ! मेरे पास जो पतली खिचड़ी है, पीयेंगे?" महौषध ने विचार किया-"खाने-पीने हेतु किये गये आग्रह को टालना अशुभ होता है; अतः वह उससे बोला-"हां, पीऊंगा।" अमरा ने खिचड़ी की हांडी, जिसे वह सिर पर रखे थी, नीचे उतारी। महौषध ने सोचा-"यदि यह स्वयं हाथ धोये बिना तथा मुझे हाथ धोने के लिए पानी दिये बिना खिचड़ी देगी तो मैं उसे यहीं छोड़ चला जाऊंगा; क्योंकि यह किसी को खाना खिलाने की पद्धति नहीं है। अमरा ने हाथ धोये। थाली में पानी डाला। हाथ धोने के लिए दिया। खाली थाली महौषध के हाथ में नहीं दी। थाली को भूमि पर रखा। खिचड़ी की हांडी को हिलाया । थाली में ऊपर तक खिचड़ी परोसी। खिचड़ी में चावल कम पके थे। यह देख महौषध ने कहा-'खिचड़ी बड़ी गाढ़ी है।" अमरा-"पानी नहीं मिला, स्वामिन् !" महौषध-- "ऐसा अनुमान करता हूँ, खेती को भी पानी नहीं मिला होगा।" अमरा ने कहा-"हां, स्वामिन् ! ऐसा ही है।" उसने अपने पिता के लिए खिचड़ी रखकर महौषध को खिचड़ी और परोसी। महौषध ने खिचड़ी पीई, हाथ धोये, मुंह धोया और वह बोला- "भद्रे ! मैं तुम्हारे घर जाना चाहता हूँ। मुझे अपने घर का रास्ता बतलाओ।" ___ अमरा ने कहा--"बहुत अच्छा, बतलाती हैं। वह बोली-'मेरे घर के रास्ते का पहचान यह है, समीप ही सत्तू और कांजी की दूकान है। वहीं पलाश का वृक्ष है, जो पुष्पों से आच्छन्न है--पूरी तरह ढका है। उसके दाहिनी ओर, न कि बाईं ओर यवमझक ग्राम का मार्ग है। उसके दोनों ओर हरे-भरे वृक्ष लगे हैं।" १. येन सत्तु विळगा च, द्विगुणपलासो च पुप्फितो। येनादामि तेन वदामि, येन नदामि न तेन वदामि । एस मग्गो यवमझ कस्स एतं छन्नपथं विजानाहि ॥८६॥ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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