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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २६५
राजा ने जब यह सुना तो सेनक पण्डित से कहा कि महौषध ने जो बताया, कैसा प्रतीत हुआ?
सेन क बोला—“राजन् ! यह बालक है। इसे क्या मालूम।" महौषध को मैं हतप्रभ कर डालू, यह सोचकर उसने कहा- “राजन् ! हम पांचों पण्डित भदन्त के-आपके समक्ष अंजलि बाँधे खड़े हैं। जैसे देवराज इन्द्र सब प्राणियों के ऊपर है, सबके अधीश्वर हैं, उसी प्रकार आप हम सबके ऊपर हैं, हमारे अधीश्वर हैं। यह इसलिए है कि आप परम ऐश्वर्यशाली हैं, विपुल वैभवशाली हैं । यह देखकर भी मेरा कहना है कि बुद्धिमान् की अपेक्षा लक्ष्मीवान ही उत्तम है।"१
राजा ने यह सुना, विचार किया-सेनक ने जो कहा है, उचित प्रतीत होता है, क्या महौषध इसके अभिमत का खण्डन कर सकेगा ? यह सोचकर उसने कहा-"पण्डित! बोलो, क्या कुछ कहते हो ?"
सेनक ने जो तर्क उपस्थित किया, वह ऐसा था कि बोधिसत्त्व के सिवाय उसका कोई भी खण्डन करने में समर्थ नहीं था। बोधिसत्त्व ने अपने प्रज्ञातिशय से सेनक के अभिमत का खण्डन करते हुए कहा- "राजन् ! सुनिए-जीवन में कभी-कभी ऐसे प्रसंग आते हैं, जब मनुष्य किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है। वैसे अवसर पर धनी मूर्ख को प्रज्ञाशील की, चाहे वह निर्धन ही क्यों न हो, शरण में आना पड़ता है । जिस जटिल और गहन विषय को प्रज्ञाशील पुरुष सही रूप में समझ लेता है, मूर्ख वैसा विषय उपस्थित होने पर विमूढ बन जाता है। उसे कछ भी सझ नहीं पडता । यह देखते हए भी मेरा कहना है कि धनी अज्ञ की अपेक्षा निर्धन प्राज्ञ श्रेष्ठ है ।"२
जब बोधिसत्त्व ने इस तरह अपनी अप्रतिम प्रज्ञा का प्रभाव प्रकट किया तो राजा सेनक को सम्बोधित कर बोला-"यदि तुम अब उत्तर देने में सक्षम हो तो बोलो।" महौषध का कथन सुनकर सेनक इस प्रकार हतप्रभ एवं उदास हो गया, मानो अपने कोष्ठागार से उसका धन अपहृत हो गया हो। वह सिर नीचा किये बैठा रहा, चिन्तामग्न रहा।
१. पच्न पण्डिता मयं भदन्ते,
सव्वे पञ्जलिका उपट्ठिता। त्वं नो अभिभूय इस्सरोसि, सक्को भूतपतीव देवराजा। एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञो निहीनो सिरिमावसेय्यो॥३७॥ २. दासो व पञस्स यसस्सि बालो,
अत्थेसु जातेसु तथाविधेसु । यं पण्डितो निपुणं संविधेति, सम्मोहमापज्जति तत्थ बालो। एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्जव सेय्यो न यसस्सि बालो ।।३।।
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