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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : ३
जाती यह देखकर मेरा कहना है कि प्रज्ञाशील निर्धन मनुष्य की अपेक्षा धन सम्पन्न अज्ञ मनुष्य उत्तम है ।"
राजा ने महौषध को सम्बोधित कर कहा - "तात् ! कहो, सेनक का मन्तव्य कैसा
रहा ?"
महौषध बोला - " सेनक का चिन्तन केवल इस लोक को लेकर है । उसकी दृष्टि नितान्त लोकमुखी है, वह परलोक की ओर दृष्टि नहीं रखता । मेरा कथन सुनें-- जो प्रखर बुद्धिशील पुरुष अन्य के लिए या अपने लिए असत्य भाषण नहीं करता, वह सभा में सम्मानित होता है तथा देह छोड़ने के पश्चात् परलोक में भी उत्तम गति प्राप्त करता है । यह देखते, जानते मेरा कहना है कि धनी मूर्ख के बजाय निर्धन प्रज्ञावान् उत्तम है ।""
इस पर सेनक ने कहा - " हाथी, गायें, अश्व, मणि, कुण्डल आदि आभूषण, समृद्ध कुलोत्पन्न स्त्रियां — ये सभी समृद्धिशाली - ऐश्वर्यशाली पुरुष के ही भोग्य होते हैं । यह देखकर मैं कहता हूं कि प्रज्ञाशाली की अपेक्षा संपत्तिशाली ही श्रेयस्कर है।
इस पर बोधिसत्त्व ने कहा - " जिसके कार्य-कलाप असंविहित हैं - अव्यवस्थित हैं, जिसके मन्त्रणाकार मूर्ख हैं, जो स्वयं निर्बुद्धि है; उस प्रज्ञाहीन पुरुष को लक्ष्मी उसी प्रकार परित्यक्त कर चली जाती है, जैसे साँप अपने जीर्ण-पुराने केंचुल का त्याग कर चला जाता है । यह देखकर, विचार कर मैं कहता हूँ कि धनी मूर्ख के बजाय निर्धन प्राज्ञ श्रेयस्कर है । "४
१. अथम्पि चे भासति भूरिपञ्ञो, अनाहियो अप्पधनो दळिद्दो । न तस्स तं रूहति जातिमज्भे, सिरी च पञ्ञाववतो न होति । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्ञ निहीनो सिरिमावसेय्यो ||३३|| २. परस्स वा अत्तनो चापि हेतु, न भासति अलीकं भूरिपञ्ञो । सो पूजितो होति समाय मज्भे, पेच्चञ्च सो सुग्गतिगामि होति । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्ञो व सेय्यो न यसस्सि बालो ॥ ३४ ॥ ३. हत्थी गवस्सा मणिकुण्डलाच, नारियो च इद्धेषु कुलेसु जाता । सब्बा व ता उपभोगा भवन्ति, इद्धस्स पोसस्स अनिद्धिमन्तो । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्ञ निहीनो सिरिमावसेय्यो ।। ३५॥ ४. असंविहितकम्मं तं बालं दुम्मन्तमन्तिनं,
सिरी जहति दुम्मेधं जिणं व उरगो तचं । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्ञो व सेय्यो न यसस्सि बालो ॥ ३६ ॥
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