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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
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कथानुयोग - चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक विवेकशील है । प्रज्ञा से घन के श्रेष्ठ होने की बात मूर्खतापूर्ण बकदास है लक्ष्मी बुद्धि से बढ़कर नहीं है । यह देखकर मेरा कहना है, मूर्ख धनी से निर्धन बुद्धिशील श्रेयस्कर है।""
यह सुनकर राजा ने सेनक से कहा - " बोलो, तुम क्या कहते हो ?"
सेनक ने कहा – “राजन् ! सुनें - असंयत भी - दुराचरण युक्त भी परमैश्वर्यशाली - धन-सम्पन्न पुरुष संस्थानगत – न्यायासन पर अधिष्ठित हुआ— बैठा हुआ जैसा बोलता है - अनुचित निर्णय भी देता है, तो भी जातीय जनों में, लोगों में मान्य होता है । यह कार्य लक्ष्मी के प्रताप से ही होता है, प्रज्ञा या विद्वत्ता के प्रभाव से नहीं; इसलिए प्रज्ञावान् की अपेक्षा लक्ष्मीवान् ही श्रेष्ठ है।"
राजा ने महौषध से कहा - "तात् ! सेनक की बात सुनी, कैसी लगती है ? '
महौषध बोला – “राजन् ! सेनक क्या जाने ? सुनें- - पर के लिए या स्व के लिए मन्दबुद्धि - मूर्ख मृषा - भाषण करता है-असत्य बालता है, सभा में, सभ्य लोगों में उसकी निन्दा होती है । वह मरणोपरान्त परलोक में भी कुत्सित गति प्राप्त करता है । यह विचार कर मैं कहता हूँ कि धनवान मूर्ख की अपेक्षा धनरहित बुद्धिमान् उत्तम है ।"
इस पर सेनक बोला — "भूरिप्रज्ञ - अत्यधिक प्रज्ञाशाली पुरुष भी यदि दरिद्र है, वह यथार्थ भी बोलता है तो उसकी बात जातीय जनों में यानि लोगों में प्रामाणिक नहीं मानी
१. यदेत मक्खा उदधि महन्तं, सव्वं नज्जो सत्वकालं असंखं । से सागरो निच्चमुळरवेगो, बेलं न अच्चेति महासमुद्दो ||२६|| एवम्पि बालस्स पजप्पितानि, पञ्च न अच्चेति सिरीकदाचि ।
एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्ञो व सेय्यो न यसस्सि बालो ॥ ३०॥ २. असतो चेपि परेस मत्थं, भणाति सन्धानगतो वसस्सी । तस्सेव तं रूहति नातिमज्भे, सिरिहीनं कारयते न पञ्ञा । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्ञ निहीनो सिरिमावसेय्यो ||३१|| ३. परस्स वा आत्तनो वापि हेतु, बालो मुसा भासति अप्पपञ्ञो । सो निन्दितो होति सभाय मज्झे, पेच्चम्पि सो दुग्गतिगामी होति । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञ्ञो व सेय्यो न यसस्सि बालो ॥३२॥
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