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________________ २६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ राजा ने यह सुना। उसने महौषध पण्डित को सम्बोधित कर कहा-"तात् ! सेनक क्या कह रहा है, समझते हो?" ___ महौषध ने कहा-"यह बड़ी तोंद वाला क्या जानता है। सुनिए-बालअप्राज्ञ, अज्ञानी पुरुष यदि बलवान् हो तो भी साधु-अच्छा नहीं; क्योंकि वह बलपूर्वक दूसरों का धन छीन लेता है, लूट लेता है । वह अन्त में नरकगामी होता है। नरक में उसके ऋन्दन करते रहने पर भी-चिल्लाते-चीखते रहने पर भी यमदूत मार-मारकर भुस निकाल देते हैं। यह देखकर मेरा अभिमत है कि धनी मूर्ख की अपेक्षा निर्धन विद्वान् उत्तम है।" राजा ने कहा- 'आचार्य ! महौषध ने जो कहा, उस सम्बन्ध में तुम क्या सोचते हो ?" सेनक बोला--"छोटी-छोटी अनेक नदियाँ गंगा में मिल जाती हैं, वे अपने नाम का गोत्र का, पहचान का परित्याग कर देती है । गंगा में मिल जाने के पश्चात् उनका किञ्चित् भी पृथक् अस्तित्व नहीं रहता, सब गंगा में विलीन हो जाता है, नाम भी, गोत्र भी, पहचान भी। जब महानदी गंगा समुद्र में प्रतिपन्न-निमग्न हो जाती है, तो उसकी भी यही स्थिति होती है-रत्नाकर-रत्नों से परिपूर्ण सागर में मिलकर अपना अस्तित्व उसे अर्पित कर देती है। जगत् की वास्तविक स्थिति यह है, लोग समृद्धिशाली की ओर ही आकृष्ट होते हैं। यह देखते हुए मेरा कथन है-धनहीन प्राज्ञ की तुलना में धनवान् अप्राज्ञ ही श्रेष्ठ है।" राजा महौषध पण्डित से बोला- "इस सम्बन्ध में तुम्हारा क्या कहना है ?" महौषध ने कहा- “महान् सागर में जो-जो नदियाँ मिलती हैं, वे सब अपने नाम, रूप. गोत्र आदि का परित्याग कर देती हैं, सो तो ठीक है, पर, एक और बात भी है, जो समझने योग्य है। वह रत्नाकर, परम वेगशाली महान सागर सदा प्रशान्त रहता है, मर्यादा में रहता है, कभी सीमोल्लंघन नहीं करता। यदि वह वैभव का महत्त्व मानता तो अवश्य दोद्धत होता, किन्तु, वह वैसा नहीं होता है; क्योंकि वह विवेक का महत्त्व समझता है, १. न साधु बलवा बालो साहसं विन्दते धनं, कन्दन्तमेव दुम्मेधं कड्ढन्ति निरये भुसं। एनम्पि दिस्वान अहं वदामि, पो व सेय्यो न यसस्सि बालो ॥२७।। २. या काचि नज्जो गङ्गमभिस्सवन्ति, सव्वा व ता नामगोत्तं जहन्ति । गङ्गा समुदं पटिपज्जमाना, नवायते इद्धिपरो हि लोको। एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञो निहीनो सिरिमावसेय्यो ॥२८॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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