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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २६१ प्राप्त है। यह देखकर मेरा यही कहना है कि प्रज्ञाशाली की अपेक्षा संपत्तिशाली ही उत्तम है।
राजा ने यह सुनकर महौषध से कहा- "सुना, सेनक ने क्या कहा?"
महौषध बोला--"राजन् ! सेनक को क्या पता है। जहाँ भात पक रहे हों, वहाँ यदि कौआ आ जाए तो उसे केवल मात-ही-भात दीखते हैं। यदि कहीं दही पड़ा हो और उसे पाने की फिराक में कुत्ता बैठा हो तो उसे केवल दही-ही-दही दीखती है । उसी तरह सेनक को केवल धन-ही-धन दीखता है। उसे मस्तक पर पड़ने वाला बड़ा सोंटा दृष्टिगोचर नहीं होता । राजन् ! सुनिए, अल्पप्रज्ञ--कम बुद्धि वाला, मूर्ख मनुष्य थोड़ा-सा सुख प्राप्त कर-थोड़े से भोग्य-पदार्थ प्राप्त कर प्रमत्त हो जाता है, प्रमाद में डूब जाता है। दु:ख का संस्पर्श कर--थोड़ा-सा दुःख आ पड़ने पर प्रमूढ- व्याकुल हो जाता है। भावी सुख और भावी दुःख की आशंका से--सुख की अति आसक्तिमय अविश्रान्त प्रतीक्षा में तथा आशंकित दुःख-प्रसूत वेदना-भीति से उसी प्रकार तड़फता रहता है, जैसे आतप में पड़ी हुई मछली तड़फती है। यह देखकर मेरा कथन है कि धनी मूर्ख की अपेक्षा निर्धन प्रज्ञाशील-विद्वान् श्रेष्ठ है।"
राजा ने यह सुना तब सेनक से कहा- "आचार्य महौषध क्या कहता है, सुना ?"
सेनक बोला-"यह नहीं जानता। मनुष्यों की तो बात ही क्या, वन में वृक्ष भी यदि स्वादिष्ट फलों से लदा है तो पखेरू उसे चारों ओर से आवृत किये रहते हैं। उसी प्रकार आढ़य-संपत्तिशाली, सधन-धनसंपन्न एवं सभोग-भोग्य-पदार्थों की विपूलता से युक्त पुरुष को अर्थ-कामना से-धन-लिप्सा से बहुत से लोग घेरे रहते हैं। इस वास्तविकता को दृष्टि में रख मैं यह कह रहा है कि ज्ञानी की अपेक्षा धनी श्रेष्ठ है।"3 १. न सिप्पमेतं विददाति भोगं,
न बन्धवा न सरीरावकासो। पस्सेळ मूगं सुखमेधमानं, सिरी हिनं भजते गोरिमन्दं । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पञो निहीनो सिरिमावसेय्यो॥२४॥ २. लद्धा सुखं मज्जति अप्पमओ, दुक्खेन फुट्ठोपि पमोहमेति । आगन्तुना सुखदुक्खेन फुट्ठो, पवेधति वारिचरो व धम्मे । एतम्पि दिस्वान अहं वदामि, पओ व सेय्यो न यसस्सि बालो ॥२५॥ ३. दुमं यथा सादुफलं अरञ्ज,
समन्ततो समभिचरन्ति पक्खी। एवम्पि अड्ढं सधनं सभोगं, बहुज्जनो मजति अत्थहेतु । एत म्पि दिस्वान अहं वदामि, पञो विहीनो सिरिमावसेय्यो ॥२६।।
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