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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक
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श्वान में-कुत्ते में और मेंढ़े में सख्य–सखा-भाव-मित्र-भाव हो गया।'
सेनक पण्डित, जो उसने कहा, उसका आशय स्वयं नहीं जानता था। उसने तो केवल वही दोहरा दिया, जो उसने महौषध से सीखा था। राजा को सारी बात का ज्ञान था; इसलिए इस घटना से सम्बद्ध तथ्य, जो सेनक की बात से मेल खाते थे, राजा के ध्यान में आ गये। उसे यही लगा-सेनक वास्तविकता जानता है।
राजा ने फिर पुक्कुस पण्डित से पूछा- “तुम्हें समाधान मिला?"
पुक्कुस ने उत्तर दिया-"राजन् ! क्या मैं अपण्डित हूँ, जो यह नहीं जानता।" पुक्कुस ने महौषध से जैसा सीखा था, बतलाया-एक का-मेंढे का चर्म घोड़े की पीठ पर सुख से बैठने हेतु बिछाया जाता है—काठी के रूप में काम में लिया जाता है। कुत्ते के लिए वैसा आस्तरण नहीं दिया जाता; अतएव मेंढे की और कुत्ते की मैत्री हो गई।"२
पूक्कूस ने यह जो कहा, अस्पष्ट था। वह उसका तात्पर्य नहीं जानता था। राजा को तो सब कुछ अवगत था; अतः उसने पूक्कूस की बात का आशय मन-मन बिठा लिया। तत्पश्चत् राजा ने सोचा कि अब मैं काविन्द पण्डित से पूछू। उसने का विन्द पण्डित से भी उसी प्रकार प्रश्न किया।
काविन्द ने उत्तर दिया-मेंढ़े के सींग आवेलित हैं-मुड़े हुए हैं, घुमावदार हैं। कुत्ते के सींग नहीं होते। एक-मेंढा तृणभक्षी है—घास खाता है, दूसरा-कुत्ता आमिषभोजी है-मांस खाता है; अतएव मेंढा और कुत्ता परस्पर सखा हो गये।"3
राजा ने अनुमान किया कि काविन्द भी वास्तविकता जानता है। तब उसने देविन्द से वही बात पूछी।
देविन्द ने भी महौषध से जैसा सीखा था, याद किया था, कहा-मेंढा तृण खाता है, पलास के पत्ते खाता है। कुत्ता शशक-खरगोश और बिलाव को पकड़ता है, उन्हें खा लेता है। अतएव मेंढ़े और कुत्ते में मित्र-भाव उत्पन्न हुआ।"४
१. उग्गपुत्तराजपुत्तियानं,
उरब्भमंसं पियं मनाणं। न ते सुनखस्स अदेन्ति मंसं, अथ मेण्डस्स सुणेन सख्यमस्स ॥१२॥ २. चम्मं विनन्ति एककस्य, अस्स पिट्ठत्थरण सुखस्स हेतु। न तु सुनखस्स अत्थर न्ति, अथ मेण्डस्स सुणेन सख्यमस्स ॥१३॥ ३. आवेल्लितसिंगिको हि मेण्डो,
न सुनखस्स विसाणानि अस्थि । तिणभक्खो मांसभोजनो च,
अथ मेण्डस्स सुणेन सख्यमस्स ॥१४॥ ४. तिणभासि पलासभासि मेण्डो,
न सुनखो तिणभासि नो पलासं । गण्हेय्य सुणो ससं बिलारं अथ मेण्डस्स सुणेन सख्यस्स ॥१५॥
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