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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग - चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक
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महषघ के अतिरिक्त वे चारों पण्डित विशेष कुछ नहीं सोच सके । वे उन व्यक्तियों जैसे थे, जो अन्धकारपूर्ण घर में प्रविष्ट हो गये हों, जहाँ उन्हें कुछ भी सूझ न पड़ रहा हो । सेनक ने इस जिज्ञासा से कि महौषध की कैसी मनःस्थिति है, उसकी ओर देखा । महौषध ने भी उसकी ओर देखा । सेनक महौषध के मुख की भाव-भंगिमा से यह समझ गया कि उसको भी प्रश्न का उत्तर सूझ नहीं रहा है। वह एक दिन का समय चाहता है, ताकि समाधान खोजने का मौका मिल सके। सेनक ने विश्वास के रूप में जोर से हंसते हुए कहा - "महाराज ! प्रश्न का समाधान न होने पर क्या हम सभी को देश से निर्वासित कर देंगे ? इस पहलू पर भी आप विचार करें। हम इस प्रश्न का समाधान लोगों के बीच में नहीं करना चाहते। लोगों की भारी भीड़ हो, बड़ा कोलाहल हो, उसमें मन विक्षिप्त रहता है; अतः एकान्त में चित्त को एकाग्र कर, इसके रहस्य पर ऊहापोह कर, सूक्ष्म चिन्तन कर समाधान देंगे। हमें कुछ अवकाश दें ।'
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राजा को उसकी बात सुनकर सन्तोष नहीं हुआ। फिर भी उसने कहा - "बहुत अच्छी बात है, भलीभांति चिन्तन कर उत्तर देना ।" इसके साथ ही साथ राजा ने पुनः यह धमकी दी - "यदि उत्तर नहीं दे पाओगे तो राष्ट्र से निर्वासित कर दिये जाओगे ।"
चारों पण्डित राजमहल से नीचे आये । सेनक ने अपने अन्य तीन साथी पण्डितों से कहा - "राजा ने बड़ा गहरा सवाल किया है। यदि हम इसका जवाब नहीं दे पाए तो हमें भारी संकट है । तुम लोग अपनी रुचि एवं स्वास्थ्य के अनुकूल भोजन कर प्रस्तुत प्रश्न पर भलीभाँति चिन्तन करना ।" वे चारों पण्डित अपने-अपने घर चले गये । महौषध पण्डित अपनी बहिन महारानी उदुम्बरा देवी के पास पहुँचा । उसने पूछा - "देवी ! बतलाओ आज या कल राजा ज्यादा देर तक कहाँ रहा ?"
उदुम्बरा देवी बोली--"तात् ! स्वामी दरवाजे की खिड़की में से देखते हुए विचारमग्न रहे, सोचते रहे ।
महौषध ने यह सुनकर विचार किया --- राजा ने वहीं से कोई विशेष बात, विशेष दृश्य देखा होगा | महोषघ दरवाजे की खिड़की पर गया, उधर बाहर दृष्टिपात किया, मेंढ़े और कुत्ते को देखा, उनकी करतूत देखी, देखते ही उसने यह कल्पना की, राजा ने यह सब देखा होगा | देखकर उसके मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ होगा । अपने मन में यह निश्चित कर, रानी को प्रणाम कर महौषध अपने घर चला आया । सेनक के साथी तीनों पण्डित कुछ भी
नहीं सोच सके । वे चिन्तातुर थे । सेनक के
यहाँ गये
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१. महाजन समागम्हि घोरे, जनकोलाहल समागम्हि जाते । विक्खित्तमना अनेकचित्ता
पन्हं न सक्कुणोम वत्तुमेतं ॥ १० ॥ एकग्गचित्ता एकमेका रहसि गता अत्थं निचिन्तयित्वा । पविवेके सम्म सित्वान धीरा, अथ वक्खन्ति जनिन्द | अत्थमेतं ॥ ११ ॥
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