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________________ २३२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ उस स्त्री ने गोला चुराना स्वीकार किया। लोग यह निर्णय सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बोधिसत्त्व को सहस्रशः साधुवाद दिया। वे सभी कहने लगे-"कितना सही फैसला हुआ है।" यक्षिणी द्वारा बालक का हरण एक बार एक स्त्री अपने पुत्र को गोद में लिए मुख-प्रक्षालन हेतु, स्नानादि हेतु महौषध पण्डित की पुष्करिणी पर गई। वहाँ उसने बच्चे को स्नान कराया, अपने कपड़ों पर उसे बिठाया, अपना मुंह धोया तथा नहाने के लिये पुष्करिणी में उतरी। उसी समय एक .यक्षिणी की उस बच्चे पर नजर पड़ी। उसके मन में उसे खाने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने एक स्त्री का वेष बनाया। वह बच्चे की माँ के पास पहुँची, उसे पूछा- "बहिन ! बच्चा बड़ा सुकुमार है, लुभावना है । क्या यह तुम्हारा है ?" वह बोली-"हां, यह बच्चा मेरा है।" इस पर उस स्त्री-वेष-धारिणी यक्षिणी ने कहा-"क्या मैं इसे खिलाऊं, दूध पिलाऊं?" बच्चे की मां बोली-"हाँ, कोई हर्ज नहीं।" तब उस यक्षिणी ने बच्चे को लिया, कुछ देर खिलाया। फिर उसे लेकर वहां से माग छूटी। बच्चे की मां ने जब यह देखा तो वह उसके पीछे दौड़ी, यक्षिणी को पकड़ा और कहा-'मेरे बच्चे को लिए कहाँ भागी जा रही हो?" यक्षिणी ने कहा-"यह तो मेरा बच्चा है, तुम्हारा कहाँ से आया?' वे दोनों आपस में झगड़ती-झगडती जब महौषध पण्डित की शाला के सामने से गुजरी तो महौषध पण्डित के कानों में झगड़ने की आवाज पड़ी। उसने उन दोनों को अपने पास बुलाया, झगड़ने का कारण पूछा। उन्होंने बच्चे के अधिकार को लेकर उनमें जो झगड़ा चल रहा था, उसे बतलाया। पण्डित ने देखा, जो स्त्री बच्चे को लिए थी, उसकी आँखें लाल थीं और वे जरा भी झपकती नहीं थीं। उसने जान लिया, यह यक्षिणी है। उसने उन दोनों से पूछा- मैं तुम्हारे विवाद का निर्णय करूं? क्या स्वीकार करोगी?" वे बोलीं- "हम आपका निर्णय स्वीकार करेंगी।" उनका कथन सुनकर महौषध ने जमीन पर एक रेखा खींची। उस पर उस शिशु को लिटाया। यक्षिणी को कहा--"इस बच्चे के हाथ पकड़ो।" बच्चे की जो वास्तविक मां थी, उसको कहा-"तुम इसके पैर पकड़ो।" दोनों ने जैसा महौषध पण्डित ने कहा, किया। फिर पण्डित ने उन दोनों को कहा- "हाथों और पैरों की अपनी-अपनी ओर खींचो । जो खींचकर अपनी ओर ले जायेगी, पुत्र उसी का होगा।" दोनों बच्चे के हाथ-पैर खींचने । लगीं इस प्रकार खींचे जाने पर बच्चे को कष्ट हुआ। वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। मां को यह सहन नहीं हुआ। उसे ऐसा लगा, मानो उसका हृदय फटा जा रहा हो। उसने तत्क्षण बच्चे के पैर छोड़ दिये। वह एक ओर खड़ा हो गई और रोने लगी। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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