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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २२१ रोहक-"राजन् ! गिलहरी की पीठ पर जितनी काली रेखाएं होती हैं, उतनी ही सफेद रेखाएं होती हैं। इसी प्रकार जितनी बड़ी उसकी देह होती है, उतनी ही बड़ी उसकी पूंछ होती है । उसकी देह की और पूंछ की लंबाई एक जितनी होती है।" । चौथे प्रहर के अंत में राजा ने रोहक को आवाज दी और कहा-“रोहक ! सोते हो या जागते हो ?" रोहक उस समय सो रहा था, नींद में था। राजा ने एक तीखी नोक वाली छड़ी से उसकी देह को छुआ, कुरेदा, उसे जगाया और पूछा--"रोहक ! क्या सो रहे थे?" रोहक-"नहीं राजन् ! मैं जागता था, एक गंभीर विषय पर चिन्तन कर रहा था।" राजा-"किस विषय पर चिन्तन कर रहे थे?" रोहक-"मैं चिन्तन कर रहा था कि महाराज के (आपके) कितने पिता हैं ?" राजा झुंझलाया और बोला-"रोहक ! यह तू क्या सोचने लगा ? सभी के पिता तो एक ही होता है।" रोहक-"राजन् ! आपके एक से अधिक पिता हैं।" राजा बौखलाहट के साथ बोला-"बतलाओ, कितने ?" रोहक ने बड़े शान्त और स्थिर भाव से उत्तर दिया-"महाराज ! आपके पांच पिता हैं।" राजा-"कौन-कौन से और कैसे ?" रोहक- "आपके प्रथम पिता कुबेर हैं । कुबेर के सदृश दानशीलता का पैतक-गुण आप में है। आपका दूसरा पिता चांडाल है । शत्रु के दमन और ध्वंस के समय आप चाण्डाल के तुल्य कठोर हो जाते हैं। शत्रु-नियंत्रण की दृष्टि से आप में कठोरता का पैतक-गुण है। आपका तीसरा पिता रजक है। रजक जैसे वस्त्र को निचोड़कर उसका सारा जल निकाल लेता है, उसी प्रकार आप प्रतिकूल हो जाने पर दूसरों का सर्वस्व-सब कुछ निचोड़ लेते हैं, हर लेते है, उन्हें नि:सार बना देते हैं। आपका एक पिता राजा है; क्योंकि आप राजा के औरस पुत्र हैं । आपका पांचवां पिता वृश्चिक है-बिच्छू है। जैसे बिच्छू निर्ममता-पूर्वक डंक मारता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है, उसी प्रकार आपने मुझ सोते हुए को छड़ी की नोंक से जगाया और मुझे कष्ट पहुँचाया।" रोहक द्वारा किये गये विवेचन को सुनकर राजा लज्जाभिभूत हुआ। वह अपनी माता के पास आया तथा रोहक ने जो-जो कहा था, वह सब उन्हें बताया। राजमाता ने कहा- "बेटा ! वास्तव में तुम अपने पिता के पुत्र हो, किन्तु, गर्भवती महिला पर औरों का भी प्रभाव पड़ता है। वह प्रभाव गर्भस्थ शिशु तक पहुँचता हैं, शिशु पर भी किसी-न-किसी रूप में वे संस्कार ढल जाते हैं । जब तुम गर्भ में थे, तब मैं कुबेर की अर्चना-उपासना करती थी। एक बार मेरी दृष्टि एक रजक पर पड़ी, जो वस्त्र निचोड़ रहा था। एक बार कुबेर की अर्चना कर वापस लौटते समय एक चांडाल को देखने का संयोग बना। एक बार यों ही विनोदार्थ आटे से निर्मित एक वृश्चिक अपने हाथ पर रखा। वृश्चिक की परिकल्पना लिये मैं उसके स्पर्श से सिहर गई थी। किसी-न-किसी रूप में यत् किञ्चित् गुणात्मक संस्कारवत्ता तुम्हारे में इन सभी जैसी है; अतएव रोहक ने जो यह व्याख्या की है, असमीचीन नहीं है।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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