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लेखक की लेखिनी से
आगमिक व त्रैपिटिक साहित्य के अनुशीलन में जब से मैं लगा, उसे तुलनात्मक रूप से लेखन का विचार भी मेरे मन में प्रस्फुटित होता गया। उक्त दोनों धाराओं के परायणकाल में ही मेरा मस्तिष्क सुस्पष्ट हो चुका था कि इस तुलनात्मक विवेचन को तीन खण्डों में लिखना होगा । प्रथम खण्ड के लेखकीय में तीन खण्डों के विषयानुक्रमी नाम भी निश्चित कर दिये गए थे (६-२-१९६९) उन्हीं नामकरणों में यत् किंचित् संशोधन करते हुए मैंने सम्बन्धित ग्रन्थमाला का यह तीसरा खण्ड तत्त्व, आचार व कथानुयोग नाम से लिखा है। इसी खण्ड के साथ मेरी पूर्व नियोजित आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन योजना सम्पन्न होती है । अस्तु अपने चिरभिलषित दुरुह संकल्प की पूर्ति पर प्रत्येक व्यक्ति को जो हर्ष होता है, वह आज मुझे भी है।
पूर्ववर्ती दोनों खण्डों में वैसे तो सभी अध्याय विद्वद् वर्ग द्वारा विशेष माने गए, पर प्रथम खण्ड में "काल-गणना प्रकरण' और 'त्रिपिटक साहित्य में निग्गठ नातपुत्त', ये दो प्रकरण तो अपूर्व ही माने गए। इसी प्रकार द्वितीय खण्ड में वर्तमान भाषा विज्ञान के सन्दर्भ में प्राकृत व पालि भाषा का अन्वेषण अभूत-अपूर्व माना गया, क्योंकि इन दिशाओं में इससे पूर्व साहित्य जगत् में विशेष कोई काम सामने आया नहीं था। मुझे आशा है, प्रस्तुत तीसरे खण्ड में 'कथानुयोग प्रकरण' भी अपूर्व ही माना जाएगा, क्योंकि दोनों परम्पराओ के प्रदेशी राजा, चित्तसभूति, मातंग हरिकेशबल : मातग जातक जैसे समान प्रकरणों के चयन में मुझे सर्वाधिक आयास उठाना पड़ा है। इस दिशा में कोई पूर्ण या अपूर्ण ग्रन्थ दिग्दर्शन के लिए भी नहीं मिला। अस्तु, जितने प्रकरण व कथानक इस ग्रन्थ में आकलित हुए हैं, उसी कोटि के उनसे अधिक प्रकरण व कथानक कोई विद्वान् निकाल सका तो पहला धन्यवाद उन्हें मेरा होगा। वैसे मैं तो चाहता हूँ, तुलनात्मक अनुशीलन को जो कथा-धारा इस ग्रन्थ से चालू हुई है, उसे गवेषक विद्वान् आगे से आगे बढ़ाते रहें। किसी की गवेषणा को पूर्ण मान लेना तो स्वयं में जड़ता ही है।
तीनों खण्डों के लेखन व प्रकाशन में समय तो बहुत अधिक ही लगा है; क्योंकि जो कायं सन १९६६ के पूर्व प्रारम्भ हो चुका था, वह अब सन् १९९०-९१ में सम्पन्न हो रहा इसका कारण है, हमारी संघीय और सामाजिक स्थितियों के उलट-फेर । पर, मैं मानता हूँ, नियति जो करती है, वह किसी अच्छे के लिए ही करती है। हो सकता है, ये तीनों खण्ड लेखन व प्रकाशन में आए हैं, उसका मूल आधार ही वह संघीय और सामाजिक उलट-फेर ही हो; क्योंकि जो कार्य आज अप्रतिबन्ध स्थिति में यथार्थरूप से सम्पन्न हो सकता है, वह प्रतिबन्धित स्थितियों में कदापि नहीं हो सकता था । संघर्ष व घटनाक्रम बहुधा प्रतिकूलत ओं को ही पैदा करते हैं, पर, व्यक्ति अपना मनोबल, सूझबूझ व धैर्य न खोए तो वह कुहासा
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