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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
सम्पादकीय यों उपर्युक्त रूप में जैन-परम्परा तथा बौद्ध-परम्परा में कथा साहित्य के माध्यम से श्रमण-संस्कृति का जो अमल, धवल, उज्ज्वल स्रोत प्रवाहित हुआ, वह विश्व के आध्यात्मिक, नैतिक, सदाचार-प्रेरक वाङ्मय की एक अनुपम निधि है ।
देश के प्रबुद्ध मनीपी, जैन जगत के लब्धप्रतिष्ठ चिन्तक एवं लेखक मुनिश्री नगराजजी डी० लिट द्वारा लिखित “आगम और त्रिपिटकः एक अनशीलन' की श्रृंखला में यह तीसरा खण्ड है, मुझे यह व्यक्त करते प्रसन्नता होती है, जिसके संपादन का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ।
मुनिश्री की यह कृति न केवल कलेवर में विशाल है, यह जैन आगम-वाङ्मय तथा बौद्ध पिटिक-वाङ्मय के परिपार्श्व में विकसित, पल्लवित विचार-वैभव, आचारोकर्ष के विस्तृत विवेचन से भी परिपूर्ण है, जो दोनों परम्पराओं में बहुत कुछ सादृश्य, सामीप्य एवं एकरूप्य लिये है।
डॉ० मुनिश्री नगराजजी ने प्रस्तुत रचना में जैन आगम-साहित्य तथा बौद्ध पिटक साहित्य के लगभग ऐसे समान वचन तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत किये हैं, जो श्रामण्य के आदर्शों पर विनिर्मित जीवन-सूत्रों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । शब्दावली में कहीं-कहीं कम साम्य भी है, किन्तु, दोनों के कथ्य विसंगत नहीं हैं। उनमें अद्भुत साम्य है। यह प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम अंश का निरूप्य है।
ग्रंथ के द्वितीय अंश में मुनिवर्य ने विश्वविख्यात जैन कथा साहित्य तथा बौद्ध कथासाहित्य, जो आगमों एवं पिटकों के सैद्धान्तिक परिपार्श्व में विकसित और संधित हुआ, का सुन्दर रूप में उपस्थापन किया है। उनमें संक्षिप्त और विस्तृत दोनों प्रकार के कथानक हैं । स्व-स्व-परम्परानुरूप उनमें पारिवेषिक परिवर्तन, परिवर्धन, संक्षेपण, प्रक्षेपण आदि हुआ है, किन्तु, मौलिक तुल्यता की सीमा से वे बहिर्गत नहीं होते। इन कथानकों का साध्य, जैसा पहले इंगित किया गया है-शील, सात्त्विक आचार, समाधि, संयम, अहिंसा, मैत्री, समता एव तितिक्षा आदि सद्गुण हैं, जिनका दोनों परम्पराओं में जीवन-सत्य के रूप में समान समादर एवं गरिमा है।
डॉ० मुनिश्री नगराजजी जैन-वाङ्मय तथा बौद्ध-वाङ्मय के गहन अध्येता हैं। "आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" उनकी ज्ञानाराधना की प्रशस्त फल-निष्पत्ति है। जैसा इस शृंखला के पिछले दो खण्डों का विद्वज्जगत् में समादर हुआ, आशा है, प्रस्तुत खण्ड भी अपने मौलिक वैशिष्ट्य के कारण सुधीवृन्द में सम्मान-भाजन होगा। भारतीय संस्कृति विशेषत: श्रमण-संस्कृति, साहित्य एव चिन्तनधारा के जिज्ञासु, अध्ययनार्थी, शोधार्थी पाठकों को इसमें उपयोगी सामग्री प्राप्त होगी।
कैवल्य-धाम सरदार शहर-३३१४०३
डॉ० छगनलाल शास्त्री एम० ए० "हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत तथा जेनोलॉजी" स्वर्ण-पदक समादृत, पी-एच० डी०, काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि, प्राच्यविद्याचार्य; विजिटिंग प्रोफेसर-मद्रास विश्वविद्यालय
विक्रमाब्द २०४७, बुद्ध-पूर्णिमा
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